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जनवरी में जब कुहरे की झीनी धवल चादर लहराए, जलते हैं अलाव

जनवरी में जब कुहरे की झीनी धवल चादर लहराए, जलते हैं अलाव

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जनवरी में जब कुहरे की झीनी धवल चादर लहराए, जलते हैं अलाव

जनवरी में 
जब
कुहरे की झीनी धवल चादर लहराए
यौवन जब खिल खिल जाए
खेतों में
सरसों, गेहूँ की फसल लहलहाए
शबनम की बूंदें घास और वनस्पतियों को जब अपना घर बनाये
सड़क किनारे
चौराहे के एक तरफ
बस स्टैंड और स्टेशन पर
चौपालों पर
जलते हैं अलाव
रूह तक पहुंचती है जब सिहरन
हाड़-मांस के लोथड़े कंपकंपाते हैं
बरफ जब पिघलती नहीं है
श्वेत हिम परत बना लेती है अपना आशियाना
पेड़ों पर
विहग न जाने कहाँ मूक पड़े हैं
नींद के मीठे आगोश में
आसमां से टपकती हैं बूंदें
अलाव की तपिश
उछालती है अनगिनत मुस्कानें
चेहरे खिलखिलाते हैं
सर्दी में अलाव लोगों को हृदय से जोड़ता है
मखमली दुशाला
पश्मिनी टोपी भी जब शहद नहीं घोल पाते
जिंदगियों में
आग के अंगारों के बीच
अलाव
हरेक तन को उष्ण करता है
कहानियां बनाता अलाव
काट देता
कतरा कतरा समय
अलाव के शोले
चमकाते हैं आंखें, लाल सुर्ख़ चमकती आंखें
अलाव में शरीर में ही नहीं तपते
रिश्ते भी तपते हैं
गुजरे हुए लम्हों को
यकायक
समेटता चला जाता है अलाव
कुछ तो खास है
इस अलाव में
जो
जीवन की लौ को बुझने नहीं देता

जनवरी में जब कुहरे की झीनी धवल चादर लहराए, जलते हैं अलाव
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