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विभाजन विस्थापन की पीड़ा का दस्तावेज़ भी

विभाजन विस्थापन की पीड़ा का दस्तावेज़ भी

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विभाजन विस्थापन की पीड़ा का दस्तावेज़ भी

आज(6जनवरी) नरेन्द्र कोहली जी का जन्मदिन है। वे मूलत: उपन्यासकार थे किन्तु  व्यंग्यबोधकता उनमें कूट-कूट कर भरी थी। सियालकोट पाकिस्तान में जन्मे और सात वर्ष की कोमल अवस्था में भारत आ बसे उनके परिवार ने विभाजन के समय बहुत सी परेशानियां झेलीं, कत्लेआम देखा और भारत में भी वे रिफ्यूजी की संज्ञा से नवाजे गए। जीवन के आखिरी मोड़ पर पहुंच कर वे सियालकोट को याद करते हुए महाभारत के सागलकोट तक पहुंच जाते हैं। अपने आत्मवृत्तांत के बहाने विभाजन के दर्द और विभाजन के उत्तरदायी नेताओं के दृष्टिकोण को लेकर यह एक मार्मिक दस्तावेज़ बन गया है जिसे अनूठे गल्प में बदल कर कोहली ने अपनी मिट्टी का ऋण अदा किया है। 

कुछ दिनों पहले जब नरेन्द्र कोहली जी की धर्मपत्नी डाॅ. मधुरिमा कोहली ने कोहली जी की आखिरी पुस्तक ''सागलकोट'' भिजवाते हुए आग्रह किया कि ओम जी क्या आप इसे पढ़ना और इस पर लिखना चाहेंगे? तो मैंने तुरन्त हाँ किया।  पुस्तक आते ही उसे पढ़ लेने की उत्सुकता भी जागी और उसे विहंगम पढ़ कर लगा कि प्राय: लेखक अपने आखिरी दिनों में अपनी जड़ों की ओर लौटता है, मुड़ मुड़ कर देखता है।  नरेंद्र कोहली ने अपने पैदाइश के इलाके सियालकोट को उसी तरह देखा है और देखा ही नहीं है बल्कि उसे महाभारत के मद्र देश के सागलकोट के रूप में पहचाना भी है और माना है कि वही सागलकोट उनका जन्म स्थल सियालकोट है। इस बहाने सियालकोट से लेकर भारत तक एक विस्थापित रिफ्यूजी रूप में आगमन का जैसा दर्दनाक दस्तावेज उन्होंने तैयार किया है वह शायद अपनी जन्म भूमि को प्रतिष्ठा देने के साथ-साथ उन लाखों भारतीयों के दर्द को उकेरने का प्रयास भी है जो उन्हें विस्थापन के नाम पर मिले हैं। 'सागलकोट'  निश्चय ही एक ऐसे बड़े लेखक की कहानी है जिसे वे अपने जीवन काल मैं सबसे अंत में कह सके क्योंकि  उन्होंने अपना पूरा जीवन महाभारत, राम कथा और विवेकानंद के जीवन आख्यान को समर्पित कर दिया था लेकिन वे जानते थे कि भारतीय लेखक होने का अर्थ और उसकी सार्थकता तभी है जब हम भारतीय संस्कृति के आकर ग्रंथों उपनिषद, आरण्यक, महाभारत और रामायण आदि से गुजरें और भारत को भारत के आईने में देखें । 'सागलकोट' एक ऐसा ही वृत्तांत है जो नरेंद्र कोहली के बचपन और विभाजन को लेकर उनके दृष्टिकोण को समझने में हमारी सहायता करता है।
 
यह जैसे कोई ईश्वरीय लेखा है कि व्यक्ति अपने आखिरी दिनों में अपनी जड़ों के पास पहुंचना चाहता है अपने अतीत को याद करना चाहता है और उन सब भूली बिसरी बातों को वह तरतीब देना चाहता है जिनसे होकर वह गुजरा है ।  नरेंद्र कोहली का आख्यान 'सागलकोट' पढ़ते हुए यही बातें मुझे सर्वप्रथम ध्यान में आई।  अपने समय के मेगा नैरेटिव लिखने वाले नरेंद्र कोहली कभी सियालकोट पाकिस्तान में जन्मे और मात्र साल की अवस्था में विभाजन के कारण विस्थापित होकर भारत पहुंचे और उसके बाद उन्होंने अपने प्रयत्नों से हिंदी सीखी और विभिन्न पौराणिक और धार्मिक आख्यानों पर उन्होंने कलम चलाई। अपने जीवन काल में उन्होंने राम कथा, महाभारत और विवेकानंद पर विस्तार से काम किया और कई कई खंडों में औपन्यासिक वृत्तांत लिखे।  आज के समय में उन जैसा कोई दूरदर्शी लेखक नहीं है जो किसी छोटी से छोटी ऐतिहासिक पौराणिक और मिथकीय घटना को बड़े उपन्यासों का रूप दे सके जिसने अपने समय में लाखों पाठक पैदा किए और इसके जरिए हिंदी पट्टी में पठनीयता का विस्तार किया, उन्हें जन-जन तक पहुंचाया और इस बात का ध्यान रखा कि इन आख्यानों के जरिए भारतीय संस्कृति और समाज को---खासतौर से उस दौर के सांस्कृतिक समाज को समझने में आसानी हो। 

 

 

'सागलकोट' जो कि अभी हाल ही में पेंग्विन और हिंद पॉकेट बुक्स के सहकार में प्रकाशित हुआ है,  एक ऐसा उपन्यास है जिसमें नरेंद्र कोहली का अपना आत्म वृत्तांत तो है ही,  इसके जरिए उन्होंने विभाजन की हृदय विदारक घटना को भी सामने रखा है कि कैसे लाखों लोग जो हिंदू थे वे विभाजन के बाद बहुत ही अपमानित और प्रताड़ित परिस्थितियों में भारत आए और भारत आने के बाद भी उनके साथ जो सलूक हुआ वह स्वागतयोग्य नहीं था । उन्हें जैसे एक अवांछित इकाई की तरह देखा गया।  ऐसे माहौल में जब उन लोगों का भारत में स्वागत किया जाना चाहिए था उन्हें रिफ्यूजी कहकर संबोधित किया गया, कायर तक कहा गया। विस्थापित होने पर अनेक शिविरों से होते हुए जिन जिन परिस्थितियों का उन्होंने और उनके परिवार ने सामना किया,  लाखों विस्थापित हिंदुओं ने सामना किया उसके दर्द को, विभाजन  के दंश को अपने भीतर समेटे हुए जैसे वे इस आखिरी आख्यान के रूप में पूरा का पूरा सच बेबाकी से कह देना चाहते थे जो अभी तक अनेक विभाजनपरक या विभाजनकेंद्रित उपन्यासों में नहीं आ सका। 
 
यह उपन्यास या आत्मवृत्त एक पत्रकार इतिहासकार नव्या कोहली से शुरू होता है जिसका एक अखबार में एक लेख पढ़ कर लेखक जान पाता है कि यह लेखिका सियालकोट में 'कोहली कुटिया'  के बारे में जानना चाहती है जो उसके दादा का बंग्ला रहा है,  जहां से लेखक का भी जुड़ाव रहा है। इसे पढ़ कर मेल पर लेखक लेखिका से संपर्क करता है तथा उससे मुलाकात संभव होती है।  कोहली परिवार की यह लड़की अपने परिवार को जो कि कभी सियालकोट में था और जिसके पुरखों की कोठी 'कोहली कुटीर'  के नाम से जानी जाती थी उसे खोजने उसका पता लगाने और अपने पूर्वजों के बारे में बहुत कुछ जानने की जिज्ञासा से लेखक नरेंद्र कोहली से मिलती है । लेखक यह बताता है कि उसने यह कोठी देखी है, जिसके पड़ोस में उसके भी दादा का निवास था जहां पर बाद में छोटी दादी रहा करती थीं,  पर हो सकता है अब यह शत्रुसम्पत्ति के रूप में किसी अन्य के हवाले हो।  इस मुलाकात के बाद नरेंद्र कोहली खुद अपने उस पुराने जन्मस्थल सियालकोट की यादों में खो जाते हैं और उस इतिहासकार और पत्रकार नव्या कोहली से बातें करते हुए और बाद में जैसे खुद से बतियाते हुए बहुत सारे राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक पहलुओं पर बेबाकी से पेश आते हैं जिसके चलते सियालकोट से विभाजनोपरांत तमाम हिंदुओं को विस्थापित होना पड़ा। 

 

 

यह विस्थापन और उत्पीड़न का एक ऐसा परिदृश्य था जिसमें 7 साल के नरेंद्र को अपने परिवार के पांच सदस्यों के साथ भारत की सीमा तक लाकर छोड़ दिया गया हालांकि इस बीच में अनेक शिविरों से होकर गुजरना पड़ा और तमाम हिकमत और उपायों से उनका परिवार भारतीय सीमा तक पहुंच सका लेकिन भारत आने के बाद जब ऐसे रिफ्यूजी परिवारों ने किसी पुरानी हवेली या पुराने किले में शरण लेनी चाही तो पता चला कि यहां से पाकिस्तान गए मुसलमानों की परिसंपत्तियॉं वक्फ बोर्ड के हवाले हैं और उसमें कोई भी रिफ्यूजी परिवार शरण नहीं ले सकता।  इस पूरी कहानी को सामने रखते हुए जिस तरह का एहसास होता है उससे लाखों-करोड़ों विस्थापितों की पीड़ा उभर कर सामने आती है। स्वयं नरेंद्र कोहली जैसे जागृत लेखक का स्वाभिमान यहां हर शब्द में बोलता नजर आता है। विस्थापन के दर्द को भी लोग नहीं जा सकते जो इस तरह की स्थितियों से कभी दो-चार नहीं हुए हैं जिन्होंने जो नौकरियों के वास्ते या जीविका के वास्ते अपने स्थान में परिवर्तन किया या किसी दूसरे शहर जा बसे।  यहां पर अपनी पुरानी जमीन से उखड़ ने वहां के इतिहास वहां की सांस्कृतिक संपदा से वंचित होने और अपने ही देश में आने के बाद उसी मान सम्मान के साथ जीने की जद्दोजहद के साथ जो जीवन शुरू करना पड़ा वह अपने आप में लोमहर्षक कहानी है।  आज भी यदि आप किसी रिफ्यूजी परिवार से मिले और उसके किसी बुजुर्ग से बातचीत करें तो जो कहानी वह सुनाएगा उसमें आत्मपीड़ा का गहरा दस्तावेज छिपा होगा।  इस उपन्यास को पढ़ते हुए यह भी साफ प्रकट होता है कि आजादी के जिन नेताओं को हमने महापुरुषों का दर्जा दिया वे किस तरह से अपने ही देश में हिंदुओं के उत्पीड़न और विस्थापन के बाद पाकिस्तान से यहां आने पर सम्मानजनक रिहाइश न उपलब्ध कराये जाने की सूचना के बावजूद खामोश रह कर सब कुछ देखते रहे।
 
इस उपन्यास के अंत में अंततः वे इस बोध तक पहुंचते हैं कि ''मैं एक व्यक्ति नहीं हूं मैं एक धारा, एक प्रवाह हूं, एक राष्ट्र हूं, मैं इतिहास हूं, मैं एक संस्कृति हूं, एक सभ्यता का अंग हूं, इसलिए उससे अलग नहीं हूं।  उसका कोई अंग हो सकता हूं, उसका कोई खंड हो सकता हूं, किंतु हूं उसके साथ ही । न उससे पृथक हो सकता हूं न उसे अपने आप से पृथक कर सकता हूं।  मैं उस धारा के भीतर हूं और वह धारा मेरे भीतर है। न मैं धारा से बाहर निकल सकता हूं न उस धारा को अपने भीतर से निकाल कर बाहर कर सकता हूं।'' भावुक कर देने वाला कथन है यह। निश्चय ही उन्होंने एक व्यक्ति के रूप में यहां अपना दर्द नहीं व्यक्त कर रहे थे, एक देश, संस्कृति, समाज, इतिहास और सभ्यता के सीने पर जो कुछ घटा उसका दर्द व्यक्त कर रहे थे।  

 

 

बीच में एक प्रसंग ऐसा भी है जहां लंदन से लेखक को बुलाया जाता है जहां उनकी भेंट सियालकोट के ही रहने वाले कुछ मुसलमान बंधुओं से होती है। उनके साथ कुछ खट्टे मीठे संवादों के साथ इसका समाहार यही होता है कि देश के बंटवारे के साथ न केवल दो देश बँटे,  बल्कि दो संस्कृतियां और सभ्यताएं बँटीं। सियालकोट को वे वही सागलकोट को मानते हैं जिसका वर्णन महाभारत में है जो मद्र देश की राजधानी रहा है और जिस तरह से सागलकोट आज भी महाभारत का अंग है, उसी तरह अपने अंतिम दिनों में भी वे सियालकोट को भारत का अंग मानते रहे।  इसलिए कहते थे मेरे भीतर मद्र देश भी है सागलकोट भी और सियालकोट इसी संसार के भूगोल में है जो पाकिस्तान का अंग है।  दूसरा सागलकोट महाभारत के मद्र देश का अंग है जो मेरे भीतर है।  भले ही उस पर यवनों ने शासन किया हो, शकों ने किया हो, मुगलों और अफ़गानों ने किया हो किंतु वह महाभारत से न तो निकाला जा सका न उससे पृथक किया जा सका।  नरेंद्र कोहली जी अपनी जन्म भूमि के इस ऐतिहासिक गौरव को याद करते रहे। पुराने किले में रिहाइश खोजने के दौरान एक साधु द्वारा माद्री संबोधित किए जाने मद्र देश और सागल कोट का सियालकोट से साम्य जुड़ता है जिसे लेखक महाभारतसम्मत ठहराता है। 
 
उपन्यास के अंत में वे एक सपना देख रहे होते हैं कि अचानक उनकी दादी प्रकट होती हैं और अचानक नरेंद्र कोहली के भीतर सारा अतीत दृश्यमान होता है। यहीं कृष्ण प्रकट होते हैं जिनका दादी से संवाद होता है। दादी कृष्ण से मुखातिब होती हैं और बहुत सारे सवाल उनके सम्मुख उठाती हैं ।  नरेंद्र कोहली जी प्रकारांतर से इस मत पर पहुंचते हैं कि विस्थापितों और शरणार्थियों के लिए तीन ही मार्ग थे धर्मांतरण, निष्कासन अथवा वध। ऐसे में लोग क्या करते सियालकोट छोड़कर भारत की धरती पर आना ही पड़ा जब कि कुछ लोग ऐसे लोगों को कायरों की संज्ञा से नवाजते रहे और चाहते रहे कि वे पाकिस्तानी मुसलमानों से लोहा लेते या वहीं मर खप जाते, यहां क्यों आए। वे कृष्ण से पूछती हैं कि आप भी तो मथुरा के यादवों को छोड़ कर द्वारका भाग खड़े हुए। तब श्रीकृष्ण  का कहना था कि मथुरा इसलिए छोड़ी कि यदि वे जरासंध से युद्ध करते जिनको यवनों का सैन्यसमर्थन था, तो उनके पास सेना नहीं थी। अत:निरीह प्रजा उनके पक्ष से युद्ध नहीं कर सकती थी।  अगर युद्ध करती भी तो बुरी तरह से मारी जाती और लाखों लोग प्राण गंवाते। इसलिए मुझे चुपचाप मथुरा से द्वारका चले जाना पड़ा ।  यह भी मैंने अपने वंश की रक्षा के लिए ही किया।  वे कहते हैं कि शत्रुओं की छाया में नपुंसक और भयभीत जीवन व्यतीत करने से बेहतर  था कि हम द्वारका में स्वतंत्र स्वच्छंद धर्म संकट और समृद्ध जीवन व्यतीत करते जो हमने किया।  दादी यह प्रश्न उठाती हैं कृष्ण से कि आपने तो धर्म के लिए न्याय के लिए प्राणों के लिए धरती छोड़ी तो रणछोड़ कहलाए तो यहां के नेता ऐसा क्यों कहते हैं कि हम कायर हैं। कृष्ण कहते है  कि '' मैंने तो नहीं कहा कि तुम लोग कायर हो।  पर इन नेताओं को कहां पता है कि धर्म क्या है, न्याय क्या है, मानवता क्या है और देवता क्या होता है । वे तो अपने सत्ता के अहंकार में अंधे हैं।'' (पृष्ठ139)

 

 

अंततः नव्या कोहली जो कोहली कुटीर को खोजते हुए उन तक आई थी, उसकी भेंट पुनः लेखक से होती है तब वह बताती है कि उसका शोध प्रस्ताव अमेरिकी विश्वविद्यालय ने स्वीकार किया है कि वह पाकिस्तानी पंजाब के मकबरों, मजारों और समाधियों को लेकर इतिहास की दृष्टि से कार्य करें और उसे सियालकोट जाकर देखने की अनुमति भी पाकिस्तानी अधिकारियों से मिल गई है ।  लेखक इस पर चकित होता है।  लेकिन नव्या इस बात से मुतमइन है कि यदि यह सपना पूरा हुआ और पाकिस्तान जा सके तो लाहौर में हकीकत राय की समाधि का दर्शन भी अवश्य करेगी और सियालकोट में यदि उनका कोई स्मृति चिह्न होगा तो उसे भी खोजने का प्रयत्न करेगी । लेखक उसे यह कहता है कि राम जी तुम्हारा अभियान सफल करें।  वह कहती है कि अगर ऐसा होता है तो क्या आप उस सियालकोट जाना पसंद करेंगे जिसे आप अपना सागलकोट मानते हैं तो लेखक कहता है तुम जाओ वहां का इतिहास खंगालो।  मेरा सियालकोट तो मेरे भीतर है जब चाहो उसे देख सकता हूं।  उसने कहा मैं कोहली कुटिया देखकर लौटी तो आपसे भेंट करने जरूर आऊंगी । लेखक हाथ उठाकर अभय मुद्रा में आशीर्वाद देता है। उपन्यास हालांकि यहीं पर खत्म होता है लेकिन यदि हम नरेंद्र कोहली को जानना चाहते हैं, उनकी वैचारिक जड़ों को जानना चाहते हैं,  उस विस्थापन को जानना चाहते हैं, विभाजन के दर्द को जानना चाहते हैं तो नरेंद्र कोहली के इस आखिरी उपन्यास जरूर गुजरना चाहिए।  यह उनका शुरुआती आत्मवृत्त भी है और इतिहास का एक भुक्तभोगी अध्याय भी जिससे केवल कोहली नहीं बल्कि हजारों लाखों हिंदू परिवार गुजर चुके हैं ; जो इतिहास तो बन चुका है लेकिन अभी आत्मा में एक नासूर के दर्द की तरह है । 
 
यह भले ही तमस् और झूठा सच की तरह उतना व्यापक और खोजी न हो और केवल आत्ममंथन के रूप में लिखा गया हो पर विभाजन के दर्द की एक गहरी लकीर तो हृदय पर खींच ही जाता है। वे निश्चय ही हिंदुत्ववादी लेखक के रूप में शुमार किए जाते हैं जो ऐंगिल यहां भी प्रभावी है किन्तु इसके बावजूद विभाजन एक सचाई है जिसे विस्थापितों की दृष्टि से झुठलाया नहीं जा सकता। भारत से ही कितने मुसलमानों को पाकिस्तान जाना पड़ा, कुछ परिवारों के दो भाग हो गए। कुछ यहां रह गए, कुछ चले गए। इस मुद्दे पर शायर मुनव्वर राना ने एक शेर के जरिए ही अपनी देशभक्ति का बयान कर डाला था : मैं मरूंगा तो यहीं दफ्न किया जाऊँगा/ मेरी मिट्टी भी कराची नहीं जाने वाली। 

 

विभाजन विस्थापन की पीड़ा का दस्तावेज़ भी
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