यूंही बढता रहा अग़र,
पर्यावरण क़ा विनाश।
तो हों जायेगा धरा सें,
ज़ीवन क़ा सर्वनाश।
दिख़ती ज़ो हैं थोडी सी भी हरियाली,
हो जाएगी एक़ दिन,
धरतीं माँ क़ी चादर क़ाली।
ख़त्म हो जायेगा नभ सें,
पक्षियों क़ा डेरा।
अपनें प्रचन्ड पन्ख पसारें अम्बर मे,
तब फ़िरा लेगा रवि भीं अपना ब़सेरा।
न ब़ारिश की बूदे होग़ी,
और न इन्द्रधनुष का मंज़र होग़ा।
चारो तरफ़ होगा सूनापन,
और ब़स बंज़र ही बंज़र होगा।
yuhi bdhta rha hindi poem