लेने के देने
गोनू झा की उत्तरोत्तर सफलता से सहकर्मी जलते-भुनते थे, इसलिए अकसर उन्हें नीचा दिखाने की ताक में रहते।
एक दरबारी भूखन मिसर था। वह उनका ग्रामीण होने के कारण भी अधिक ईर्ष्या करता और साजिश में बढ-चढकर हिस्सा लेता; यहाँ तक कि गाँव में भी चैन से नहीं रहने देता था वह काना। प्रायः ऎसे ही लोगों को देखकर यह लोकोक्ति बनी:
'सौ मैं सूर हजार में काना,
सवा लाख में अइंचा ताना।
अइंचा ताना करे पुकार,
मैं माना कुइरे से हार।'
अस्तु! एक दिन भूखन मिसर ने भरे दरबार में शिकायत करते हुए कहा, 'महाराज, बारह वर्ष पूर्व गोनू झा की शादी होनेवाली थी। तब इन्होंने मुझसे एक आँख साल भर के लिए उधार ली और आज एक युग बीत गया। यह शायद भूल भी गए होंगे। अब मुझे इस आँख से कम सूझने लगा है, इसलिए मेरी आँख वापस दिलाई जाए।'
गोनू झा उसकी बेबुनियाद बातें सुनकर पहले तो क्षणभर अचंभित रहे, फिर महाराज ने जब आँखें गुरेरते हुए पूछा, 'गोनू झा, भूखन मिसर क्या कह रहे हैं? तो उन्होंने सॅंभलते हुए कहा, 'जी महाराज, मैं यह उपकार कैसे भूल सकता हूँ! इतना कृत्घन नहीं हूँ। दूसरी बात यह कि इसी के एवज में मैंने उन्हें सौ स्वर्ण-मुद्राऍं दी थीं और कहा था कि एक वर्ष बाद जब चाहें, मेरी पूरी रकम एकमुश्त वापस कर अपनी आँख लौटा लें। उन्होंने कभी ऎसा नहीं किया, इसलिए मैं भी निश्चिंत हो गया। उन्हीं से पूछ लिया जाए, यही शर्त थी कि नहीं!"
भूखन ने खुशी-खुशी हामी भर दी और कहा, 'मैं स्वर्ण-मुद्राऍं लौटाने को तैयार हूँ। मेरी आँख वापस करें।
गोनू झा ने सहज भाव से कहा, 'ठीक है, आठवें दिन एक हाथ से लेना और दूसरे से देना हो जाए।
शर्त सहर्ष मंजूर हुई। सभासद स्तब्ध।
इस नाम पर भूखन को मुद्राऍं एकत्र करने में देर न लगी; ईष्यालु दरबारियों ने आनन-फानन में पूरी राशि जमा कर दी और गोनू झा की एक आँख निकलने की प्रतीक्षा करने लगे- अब आया ऊँट पहाड़ के नीचे!
इधर गोनू झा ने चुपचाप जानवरों, पक्षियों और मछलियों की बड़ी-बड़ी आँखें क्रमशः कसाइयों, बहेलियों एवं मल्लाहों से एकत्र कर लीं।
आठवें दिन स्वर्ण मंजूषा में आखों को सजाकर दरबार में उपस्थित हुए ।
दरबार ठसाठस भरा था। भूखन मिसर ने स्वर्ण-मुद्राऍं दिखाते हुए अपनी आँख माँगी।
गोनू झा ने कहा, 'महाराज, उनकी मुद्राऍं गिनकर अपने पास रखवा लें और मैं भी आँखे जमा कर रहा हूँ। वह अपनी आँख पहचानकर उठा लें।
गोनू झा ने मंजूषा खोलकर राजा के समक्ष रख दी। फिर भी भूखन और उसके समर्थक खुश नहीं दिख रहे थे कि गोनू झा की दोनों आँखें तो सुरक्षित ही हैं। अंततः भूखन ने झुँझलाते हुए कहा, 'महाराज, इनमें मेरी आँख नहीं है।'
गोनू झा ने सहजता से कहा, 'इसमें गुस्साने की क्या जरूरत है? महाराज, उनके पास एक आँख तो है; उसे ही निकालकर बराबर वजन की दूसरी ढूंढ लें। मैंने नुक्ती की व्यवस्था पहले से ही कर रखी है।'
यह सुनते ही भूखन भागने लगा, लेकिन राजा ने पकड़वा लिया।
अब वह गिड़गिड़ाने और माफी माँगने लगा। षड्यंत्र का परदाफाश हुआ। भूखन मिसर की स्वर्ण-मुद्राऍं तो गईं हीं, दरबार से निकाला गया सो अलग।
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