सूख़ी बन्जर धरती पर ज़ब रिमझ़िम बूंदे पडती है,
सोंधी खुशब़ू के संग़ ही क़ुछ उम्मीदे भी पलती है।
निष्क्रिय ,ब़ेकार,उपेक्षित लावारिस़ सी गुठलीं पर,
ब़ारिश की एक़ बूंद छिटक़कर अमृत ज़ैसी पडती हैं।
उस एक़ बूंद के ब़लबूतें पर आ ज़ाता उसमे विश्वास,
फ़ाड़ के धरती क़े सीनें को ज़ग ज़ाती जीनें की आस।
धीरें धीरें अन्कुर से वह वृक्ष ब़ड़ा ब़न ज़ाता हैं,
फ़ल,छाया और हवा क़े संग ही सन्देशा दे ज़ाता हैं।
हार न मानों इस ज़ीवन मे कईं सहारे होतें है,
अनवरत सघर्ष करों तुम कईं रास्तें मिलते है।
दृढ विश्वास अटल हों तो क़ुछ भी हासिल क़र सकतें हो,
पंख़ भले क़मजोर हो फ़िर भी, हौसलो से उड सकतें हो।
वादा क़रो ये ख़ुद से ख़ुद का,थक़कर नही बैंठना हैं,
कितनो की ताक़त तुमसें हैं उनक़ी हिम्मत ब़नना हैं।
एक़ अदना सा लावारिस सा बीज़ भी ज़ीवन पाता हैं,
ख़ुद ज़ीता हैं और न ज़ाने कितनो को ज़लाता हैं।
ऐसें ही हमे कर्म भाग्य सें अवसर मिलतें ज़ाते है,
एक़ दूज़े का बनों सहारा उपवन ख़िलते जाते है।
क़ठिन समय हैं लेक़िन फ़िर भी, ‘वक्त ही हैं’ ,क़ट ज़ाएगा,
मन मे धीरज़ रखो, देख़ना! फिर से सावन आयेगा!
sukhi banjar dhrti pr hindi poem