शोर इतना है यहाँ कि खुद की आवाज दब जाती है,
धुंध इतनी है कि कुछ भी नजर नहीं आता।
चकाचौंध में दफन है तारे और चंद्रमा भी,
पहले पता होता कि शहर ऐसा होता है…
तो मैं भूलकर भी कभी शहर नहीं आता।
खलल इतना है यहाँ दिखावे और बनावटों का,
रोना भी चाहूँ तो आँखों से आंसू नहीं आता।
कोई माँ तो कोई मासुक की यादों में डूब जाता है,
आकर सोचता है काश! वो शहर नहीं आता।
इतनी भीड़ है कि खुद को भी पहचानना मुश्किल है,
सोचता हूँ कि आईना बनाया क्यूँ है जाता।
बदनसीब ही था वो कि गांवों में भूख न मिट सकी,
पेट की जद में न होता तो शहर नहीं आता।
वक्त इतना भी नहीं कि कभी खुलकर हंस लूँ,
ठोकरें लगती है तो खुद को संभाला नहीं जाता।
तन्हाई और दर्द की दास्तां से भरी पड़ी है शहर,
पहले जान जाता ये सब तो मैं शहर कभी नहीं आता।
रक्त और स्वेद में यहाँ फर्क नहीं है कोई,
शहर में रहकर भी शहर कोई जान नहीं पाता।
ऐसा लगता है सब जानकर अनजान बनते हैं,
ऐसे नासमझ शहर में मैं कभी नहीं आता।
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