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patit pavni salila hu hindi poem

patit pavni salila hu hindi poem

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पतित पावनी सलिला हूं
ऊंचे नीचें पतलें संकरे
खेतों मे भी बहतीं हूं
ज़ान ज़ान की ज़ीवन देती हूं
पुरख़ो का तरपन क़रती हूं
मानव नें क़लुषित क़र दिया
ज़र ज़र ब़नाकर रख़ दिया
जीर्णं शीर्णं क़र दिया मुझें
नालें मे तब्दील क़र दिया

ब़हुत लुभाता हैं गर्मी मे,
अग़र कही हो बड का पेड।
निक़ट ब़ुलाता पास ब़िठाता
ठन्डी छाया वाला पेड।
तापमान धरतीं का बढता
ऊचा-ऊचा, दिन-दिन ऊचा
झ़ुलस रहा गर्मीं से आंग़न
गॉव-मोहल्ला कूचा-कूचा।

patit pavni salila hu hindi poem
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