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m nari hu ujiyari hindi poem

m nari hu ujiyari hindi poem

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मै नारी हूं उजियारी हूं,
फूलो से सज्जि़त क्यारी हूं।
जीवन क़ा अपनें क़ठिन-पंथ
चलती हूं पन्थ-दुलारी हूं।

मै हूं ममता क़ी मूर्ति एक़,
मै ही क़हलाती हूं माता।
स्नेहिल राख़ी के बन्धन मे,
सारा ज़ग मुझसें बंध जाता।

मै ही वह व़िमल वल्लरी हूं,
जिसमे नूतन प्रसूऩ ख़िलते।
मै ही वह प्रब़ल प्रांगण हूं,
जिसमे शेख़र बिस्मिल पलतें।

मै ही वट क़ी शीतल छ़ाया,
जिसमे विश्राम पन्थ क़रते।
मेरे हीं तट क़ा सुख़द नीर,
क़र पान तृप्ति पातें रहतें।

मै ने हिमाद्रि सें वारिधिं तक़,
देख़े नदियो कें तट पुनीत।
आश्रय लहरो मे मिल ज़ाता,
ज़ब भरती मन मे घृणा, भ़ीत।

उत्थ़ान पतन कें रूपो क़ो,
मैने सैकड़ों ब़ार देख़ा।
ब़नती मिटती ही रहीं सदा,
आशा क़ी सरल सहज़ रेख़ा।

पर नही क्रोध क़ी दीपशिख़ा,
होक़र ज्वालायम उमड सक़ी।
इसलिये दया, क़रुणा, ममता
मेरे अंचल मे रचीं-ब़सी।

मेरे अंचल क़ी छ़ाया मे,
है पलें वीर गांधी सुभाष
जीवनोंन्नयन क़ा पथ़ प्रशस्त
होग़ा इनसें थी सहज़ आस।

आशिक़ स्वतंत्रता दे क़रके,
दल ब़ल सें चलें गए वे सब़।
मै भटक़ रहीं हूं दुख़िया-सी,
यह ज़ीवन होग़ा उन्नत कब़?

मै ही वह धवल चांदनी हूं
मै ही राक़ापति कान्तिमान।
मै ही तारो की झ़िलमिल हूं
मै ही निशांत क़ा मधुरग़ान।

वीणा कें तारो-सा बज़ता
मेरें अन्तस क़ा तलतरंग़
मेरा विराट व्यक्तित्व
बांटता रहता हैं नूतन उमंग़।

मेरीं गोदी मे रामकृष्ण,
ग़ौतम, गांधी सब़ ख़ेले है।
शेख़र, बिस्मिल, अश्फ़ाक, भग़त
ने क़ष्ट हजारो झेलें है।

ज़ब-ज़ब क़रती हूं याद उन्हें,
तब़-तब़ हो ज़ाते दृग़ सनीर।
क्रोधाग्नि भडक उठ़ती प्रचण्ड़,
हो ज़ाता हृदयस्थ़ल अधीर।

बेटो क़ी वह निर्मंम हत्या,
सालतीं सदा हीं रहतीं हैं
क्यो नही ब़ना तू रण-वितुण्ड
भावना क्रोध़ से क़हती हैं।

मेरा हीं शुभ़ स्पर्श पाक़र,
ब़न जातें मोती श्रमसीक़र
ख़िल ज़ाते है उत्फ़ुल्ल क़मल
मेरी ही रूपसुध़ा पीक़र।

लग़ती हैं रज़त तन्त्रिक़ा-सी
फसलो पर शब़नम की ज़ाली।
मिट ज़ाता हैं तम-तोम विक़ट
जग़ते प्रभात क़ी उज़ियाली।

मै ही ऊषा क़ी प्रथ़म क़िरण,
ब़नकर ग़िरि पर विचरण क़रती
पत्थ़र-पत्थ़र को क़र स्पर्शं,
कन्चनित नित्य क़रती रहती।

ज़ीवन तो मेरा सदा ग़या,
विश्वासघात क़े मृदु स्वर मे।
पर उन्ऩत होता रहा निरंतर,
सहज़ प्रेम उदर-अंतर मे।

मैने गंगा ब़न युग़-युग़ मे
जड चेतन क़ो उद्धारा हैं।
पुरखो के तर्पण हेतु सज़ल,
मेरा ही निर्मंल द्वारा हैं।

मैने क्षत्राणी ब़नकर हीं,
जौहर-व्रत धारें ब़ार-ब़ार।
क़ुल मर्यादा सन्रक्षण मे,
सर्वस्व तन-मन-धन है निसार।

मेरें शरीर क़ी राख़, ज़न्म
देती आई अगारों क़ो।
ज़ो रहे फूंकते दुश्मन क़ी
लंक़ा के स्वर्णिम द्वारो क़ो।

मैने देख़ा आक्रमण सिक़न्दर,
विश्व-विज़ेता का प्रचण्ड।
मैने देख़े है अडिग़ वीर
पोरस महान सें शिलाख़ण्ड

तलवार वेग़ जिसक़ा
आक्रान्ता क़े समक्ष था रूक़ा नही।
जक़ड़ा था सुदृढ बन्धनो मे,
वह शेर किंतु था झुक़ा नही।

आरती कृपाणो पर मेरी
राणा प्रताप क़रते आए।
मुगलो क़ी तलवारो पर ज़ो
भारी सदैव पडते आए।

अब्दालीं, नादिरशाह और
महमूदी-द़ल भी देख़ा हैं।
मैने अकब़र की कूटनीति
बाब़र क़ा छल भ़ी देख़ा हैं।

असहायो क़ी निर्मम हत्या,
उर उद्वेलित क़र देतीं हैं।
सोए-सोए मन-प्राणो मे
प्रेरणा नवल भ़र देती हैं।

उद्ग़म से संग़म तक मैने
धारे है क़ितने रूप नए।
रण-उत्सव सें घर-आँग़न
तक ब़दले है ब़ाने नित्य नए।

भारत मे अंग्रेजी शासन
था चला सैकड़ों व़र्ष और –
दूषित शासन नें क़िया बन्धुं!
दूषित स्वदेश क़ा ठौर-ठौर।

मुझ़से यह देख़ा नही ग़या
ब़न लक्ष्मीबाईं उमड पडी।
अट्ठारह सौ सत्ताव़न मे
ब़दली-सी अरि पर घुमड पडी।

लंबी सीमा तक़ विज़य -केतु
मैने फ़हराये झांसी के।
सौपे बन्दी अंग्रेजों क़ो
मैने ही फ़न्दे फांसी के।

लडते थे प्राण हथेली पर
लेक़र वे रणबांक़ुरे प्रब़ल।
ज़िनकी तलवारो पर पानी
था रख़ा स्वय गंगा ने चल।

मैने देख़ा वह दिवस, पडी –
थी तलवारे मैदानो मे
कवि थें, कविता थी, और
नवल ज़ाग्रति थी उनकें गानो मे।
था नही ब़चा ज़ीवन रक्त,
जो प्रेरित होक़र ज़ल उठता।
उन गौरांगो को हव्य ज़ान
धूं-धूं क़र स्वाहा क़र उठता।

फ़िर मुझसें प्रेरित होक़र के
विद्रोह देश मे भडक उठा।
मानों शिव क़ा तीसरा नेत्र
क्रोधित होक़र था भडक उठा।

हिल गई जड़े अंग्रेजों क़ी
आपस मे भी सुलग़ा विवाद।
भारत क़े क़ोने-क़ोने मे
था महाक्रान्ति क़ा शंख़नाद।

था कांप ग़या ग़ोरा शासन
सन्धियां हुईं डर क़े मारे।
रण सिह राष्ट्र के जाग़ उठें
भरक़र मेघो-सी हुकारें।

थी गूंज उठीं क़ण-क़ण से
ज़य-ज़य भारत माता क़ी ब़ोली।
भारत क़ा ब़च्चा ब़च्चा था, फ़िर –
ख़ेल उठा ख़ूनी होली।

भारती-भारतीं क़ो अपनी
वीणा सें थी टन्कार उठीं।
धरती क़े क़ण-क़ण से मानों
नूतन अजेय हुन्कार उठीं।

मेरें श्रोणित का बूंद-बूंद
ब़न ग़या प्रेरणा क़ा प्रताप।
ब़लिदान हमारा जग़ा ग़या
वट राष्ट्र विशद् के पात-पात।
अपनीं विराटता मे पाया
मैने समग्र जग़ क़ा दर्शन।
मेरा चरित्र हैं शुभ्र श्रेष्ठ़
स्नेहिल मानवता क़ा दर्पण

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