सफेद चादर में लिपटी कोहरे की धुंध
ले आई ठंड की कैसी चुभन,
कोहराम करती वो सर्द हवाएं
छोड़ जाती बर्फ से ठंडी सिहरने,
कोहरे का साया भी ऐसा गहराया
सूरज की लाली भी ना बच पाया,
अंधेरा घना जब धुंधलालाया
रात के सन्नाटों ने ओस बरसाया,
कैसी कहर ये ठंड की पड़ी
जहां देखो दुबकी पड़ी है जिंदगी,
अमीरों के अफसानों के ठाठ हजार
गरीबी कम्बलों से निहारती दांत कटकटाती,
ठिठुरती कपकपाती सर्द रातों में
आग की दरस की प्यासी निगाहें,
याद आती है अंगूठी के इर्द-गिर्द
चाय की चुस्कियां लेती हो मजलिसे,
तन को बेचैन करती कोहरे ओढ़ें
आती सुबह शुष्क हवाओं संग,
कैसी कहर ये ठंड की पड़ी
जहां देखो दुबकी पड़ी है जिंदगी।
kohre ki dhundh hindi poem