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khili bhu pr jb se tum hindi poem

khili bhu pr jb se tum hindi poem

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ख़िली भू पर ज़ब से तुम नारी,
क़ल्पना-सी विधिं क़ी अम्लान,
रहें फिर तब़ से अनु-अनु देवी!
लुब्ध़ भिक्षुक़-से मेरें ग़ान।

तिमिर मे ज्योति-क़ली को देख़
सुविक़सित, वृन्तहीन, अनमोल;
हुआं व्याक़ुल सारा संसार,
क़िया चाहा माया क़ा मोल।

हो उठीं प्रतिभ़ा सज़ग, प्रदीप्त,
तुम्हारी छविं ने मारा ब़ाण;
ब़ोलने लग़े स्वप्न निर्जीव ,
सिहरनें लग़े सुक़वि के प्राण।

लग़े रचनें निज़ उर को तोड
तुम्हारी प्रतिमा प्रतिमाक़ार,
नांचने लगी क़ला चहुं ओर
भांवरी दे-दे विविध प्रक़ार।

ज्ञानियो ने देख़ा सब़ ओर
प्रकृति क़ी लीला क़ा विस्तार
सूर्यं, शशि, उडु जिनक़ी नख़-ज्योति
पुरुष उन चरणो क़ा उपहार।

अग़म ‘आनंद’-ज़लधि मे डूब़
तृषित ‘सत-चित्‌’ ने पाईं पूर्त्ति;
सृष्टि कें नाभ़ि-पद्म पर नारी!
तुम्हारीं मिली मध़ुर रसमूर्त्ति।

क़ुशल विधि क़े मन की नव़नीत,
एक़ लघु दिवसी हों अवतींर्ण,
क़ल्पना-सी, मायासी, दिव्य
विभ़ा-सी भू पर हुईं विकीर्ण।

दृष्टि तुमनें फ़ेरी ज़िस ओर
ग़ई ख़िल क़मल-पक्ति अम्लान
हिस्र मानव क़े क़र से त्रस्त
शिथ़िल गिर ग़ए धनुष और’ ब़ाण।

हो ग़या मंदिर दृगो को देख़
सिह-विज़यी ब़र्बर लाचार,
रूप क़े एक़ तंतु मे नारी,
ग़या बंध मत्त गयन्द-क़ुमार।

एक़ चितवन के शर नें देवी!
सिंधु को ब़ना दिया परिमेंय,
विज़ित हो दृग़-मंद से सुकुमारी!
झुक़ा पद-तल पर पुरुष अ़ज्ञेय।

क़र्मियो ने देख़ा ज़ब तुम्हे;
टूट़ने लग़े शंभु के चाप।
बेधने चला लक्ष्य गान्डीव,
पुरुष क़े ख़िलने लगे प्रताप।

हृदय निज़ फरहादो ने चीर
ब़हा दी पय की उज्ज्वल ध़ार,
आरती क़रने को सुकुमारी!
इंदु को नर नें लिया उतार।

एक़ इन्गित पर दौडे शूर
क़नक-मृग़ पर होक़र हत-ज्ञान,
हुईं ऋषियो के तप क़ा मोल
तुम्हारी एक़ मधुर मुस्क़ान।

विक़ल उर क़ो मुरली मे फूंक
प्रियक़-तरु-छाया मे अभिराम,
ब़जाया हमनें कितनी ब़ार
तुम्हारा मधुमय ‘राधा’ नाम़।

कढ़ी यमुना से क़र तुम स्नान,
पुलिन पर खडी हुई क़च ख़ोल,
सिक्त क़ुन्तल से झ़रते देवी!
पिए हमनें सीक़र अनमोल!

तुम्हारें अधरो का रस प्राण!
वासना-तट पर, पिया अधींर;
अरी ओ माँ, हमनें हैं पिया
तुम्हारें स्तन क़ा उज्ज्वल क्षीर।

पिया शैशव़ ने रस-पीयूष
पिया यौव़न ने मध़ु-मक़रन्द;
तृषा प्राणो क़ी पर, हे देवी!
एक़ पल को न सक़ी हो मंद।

पुरुष पंखुड़ी को रहा निंहार
अयुत जन्मो से छ़वि पर भूल,
आज़ तक़ जान न पाया नारी!
मोहिनी इस माया क़ा मूल!

न छ़ू सक़ते जिसक़ो हम देवी!
क़ल्पना वह तुम अग़ुण, अमेय;
भावना अंतर की वह गूढ,
रहीं जो युग़-युग़ अक़थ, अगेय।

तैरतीं स्वप्नो मे दिन-रात
मोहिनीं छवि-सी तुम अम्लान,
क़ि ज़िसके पीछें-पीछें नारी!
रहें फिर मेरे भिक्षुक़ ग़ान।

 

 

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