एक बूंद ने कहा, दूसरी बूंद से,
कहाँ चली तू यूँ मंडराए?
क्या जाना तुझे दूर देश है,
बन-थन इतनी संवराए,
जरा ठहर, वो बूंद उसे देख गुर्राई,
फिर मस्ती में चल पड़ी, वो खुद पर इतराए,
एक आवारे बादल ने रोका रास्ता उसका,
कहा क्यों हो तुम इतनी बौराए?
ऐसा क्या इरादा तेरा,
जो हो इतनी घबराए?
हट जा पागल मरे रास्ते से,
बोली बूंद जरा मुस्काए,
जो न माने बात तू मेरी,
तो दूँ मैं तुझे गिराए,
चली पड़ी फिर वो फुरफुराए,
आगे टकराई वो छोटी बूंद से,
छोटी बूंद उसे देख खिलखिलाए,
कहा दीदी चली कहाँ तुम यूँ गुस्साए?
क्या हुआ झगड़ा किसी से,
जो हो तुम मुंह फुलाए?
कहा सुन छोटी बात तू मेरी,
जरा ध्यान लगाए,
मैं तो हूँ बूंद सावन की कहे जो तू,
तू लूँ खुद में समाए,
बरसे हूँ मैं खेत-खलिहानों में,
ताल-सराबर दूँ भरमाए,
वर्षा बन धरती पर बरसूँ,
प्रकृति को दूँ लुभाए,
लोग जोहे हैं राह मेरी,
क्यों हूँ मैं इतनी देर लगाए?
सुन छोटी, जाना है जल्दी मुझे,
दूँ मैं वन में मोर नचाए,
हर मन में सावन बसे हैं,
जाऊं मैं उनका हर्षाए,
हर डाली सुनी पड़ी है,
कह आऊँ कि लो झूले लगाए,
बाबा बसते कैलाश पर्वत पर,
फिर भी सब शिवालय में जल चढ़ाए,
हर तरफ खुशियाँ दिखे हैं,
दूँ मैं दुखों को हटाए,
पर तुम क्यों उदास खड़ी हो,
मेरी बातों पर गंभीरता जताए?
कहा दीदी ये सब तो ठीक है,
पर लाती तुम क्यों बाढ़ कहीं पर कहीं सूखा कहाए?
क्या आती नहीं दया थोड़ी भी,
कि लूँ मैं उन्हें बचाए?
न-न छोटी ऐसा नहीं है,
हर साल आती मैं यही बताए,
प्रकृति से न करो छेड़छाड़ तुम,
यही संदेश लोगों को सिखाए,
पर सुनते नहीं बात एक भी,
किस भाषा उन्हें समझाए?
समझ गई मैं दीदी तेरी हर भाषा,
अब न ज्यादा वक्त गंवाए,
मैं भी हूँ अब संग तुम्हारे,
चलो अपना संदेश धरती पर बरसाए,
कर लो खुद में शामिल तुम,
लो अपनी रूह बसाए,
आओ चलें दोनों धरती पर,
इक-दूजे पर इतराए।
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