धरती का आँगन इठलाता, शस्य श्यामला भू का यौवन।
अंतरिक्ष का हृदय लुभाता।।
जौ गेहूँ की स्वर्णिम बाली, भू का अंचल वैभवशाली।
इस अंचल से चिर अनादि से, अंतरंग मानव का नाता।।
आओ नए बीज हम बोएं, विगत युगों के बंधन खोएं।
भारत की आत्मा का गौरव, स्वर्ग लोग में भी न समाता।।
भारत जन रे धरती की निधि, न्यौछावर उन पर सहृदय विधि।
दाता वे, सर्वस्व दान कर, उनका अंतर नहीं अघाता।।
किया उन्होंने त्याग तप वरण, जन स्वभाव का स्नेह संचरण
आस्था ईश्वर के प्रति अक्षय, श्रम ही उनका भाग्य विधाता।।
सृजन स्वभाव से हो उर प्रेरित, नव श्री शोभा से उन्मेषित
हम वसुधैव कुटुम्ब ध्येय रख, बनें नये युग के निर्माता।।
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