चढ़ लूँ उस छोर पर
जहा से शूरू है अस्तित्व तुम्हारा
इंद्रधनुषी रंग देखूँ
या बर्फ़ो की माला,
तने हो यूँ,
अडिग हो, अटल हो
जीवन के किस पहेली के हल हो ,
क्या ये सूनापन ही
तम्हारी एकाग्रता है ?
इर्द-गिर्द मंडरा रही
मेघों की छटा है,
बाहर से निष्क्रिय
अंदर से क्रियाशील हो,
शीतल हो या शलील हो ?
रुक जाऊँ वहां,
जहाँ तम्हारी नीव हैं,
पाषाणों से लदे हो,
नदियों की पहल हो,
रक्षक हो हिन्द के,
या क्षत्रिय हो तुम?
वनों की शोभा हो,
पशु-पंछियों की आभा हो,
यात्रियों का पड़ाव हो,
नदियों का बहाव है,
हो वसुधा के श्रृंगार,
नभ चुंबी हो,
परिश्रम की कुंजी हो,
हो तुम मानवता
के लिए अनंत उपहार,
फिर भी क्यूँ है
सूनापन ?
क्या नभ को छूं
लेने का घमंड है ?
या तुम कड़वे किस्सों
के खंड हो ?
विशेषताओं से परिपूर्ण,
पर हर ओर से
अभी भी शून्य हो तुम,
ऐ हिमालय!
पर्वतों के राजा
क्या मानव ने कर
दिया तेरा
यह हश्र हैं ?
आज बुलंद होकर
भी इतना
क्यों तू बेबस हैं ?
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