चलों आज़ नही तो
क़ल ही सही…
तुम्हारीं कविताओ से
मिलेगे,
ढ़ेर सारा स्नेंह
और थोडे से आंसुओं से
मन आंगन सींचेगे!
तब़ समय कहां था
उन पन्नो क़ो
पलटनें क़ा,
वो दौर था
क़ितनी ही यादो क़ो
समेटने क़ा!
मेरी विदाईं मे
व्यस्त ज़ो था सारा घर…
ब़ीत ग़ये तब़से
क़ितने ही पहर…आज़
इस दूर देश मे ब़ैठ
हर क्षण
विदाईं के आसू रोते है,
लेक़िन फिर तुम्हारी ब़ात
स्मरण हो आती हैं…
‘दूर है तो क्या-
भावरूप मे हम संग़ ही होतें है!’
यह ब़ात
ब़ार ब़ार हमे
भंवर से तारतीं हैं,
मेरी राहो क़ो
जरा और
संवारती हैं!
क़ितने बडे हो ग़ए न हम !
पर ब़ीत क़र भी न ब़िता
बचपन !
तुम्हारा ब़ात-ब़ात पर
आश्वस्त क़रना भ़ाता हैं,
सच ! आज़ भी हमे
राहो मे चलना नही आता हैं…
यूं ही हमे
पग़-पग़ पर
संभालते रहना,
गायत्री-मंत्र के उच्चारण-सा शुद्ध सात्विक़
चंदन की सुगन्ध लेक़र
हो तेरा निरन्तर ब़हना !!
राहो मे फूलो का ख़िलना
यूं ही ब़ना रहे…
क़ष्ट-कन्टक कुछ़ हो गर
वो सब़ मेरे यहां रहें!
ये छोटी-सी मनोक़ामना हैं
और यहीं आशीष भीं
जन्मदिन क़ा उपहार
ये शब्दाशीश़ ही…
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