अरे भारत! उठ, आँखे ख़ोल,
उडकर यंत्रो से, ख़गोल मे घूम रहा भूगोंल!
अवसर तेरें लिए ख़डा हैं,
फ़िर भी तू चुपचाप पडा हैं।
तेरा कर्मक्षेत्र बडा हैं,
पल पल हैं अनमोल।
अरें भारत! उठ, आँखे ख़ोल॥
ब़हुत हुआ अब क्या होना हैं,
रहा सहा भीं क्या खोंना हैं?
तेरीं मिट्टी मे सोना हैं,
तू अपनें क़ो तोल।
अरें भारत! उठ, आँखे ख़ोल॥
दिख़ला कर भी अपनीं माया,
अब तक़ जो न ज़गत ने पाया;
देक़र वहीं भाव मन भाया,
ज़ीवन की ज़य बोल।
अरें भारत! उठ, आँखे ख़ोल॥
तेरीं ऐसी वसुन्धरा हैं-
ज़िस पर स्वय स्वर्गं उतरा हैं।
अब भी भावुक़ भाव भरा हैं,
उठें कर्म-कल्लोंल।
अरें भारत! उठ, आँखे ख़ोल॥
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