आये संग बहार लिये, जा रहे उसे ले साथ कहाँ?
पूछ रहा यह चमन ‘तरुण’ बोलो मेरा गुलजार कहाँ?
बेलि लगायी शिक्षा की सींचे इसको श्रम जल से तुम,
पनपी हरियाली ले फूली खुशबू भी दे जाते तुम।
आया था उल्लास नया, चेतना नयी लहरायी जो,
गम जड़ता का भार दिये जा रही थी दिल बहलाती जो।
उगे ‘अरुण’ जो विभा ‘तरुण’ से ले प्रकाश फैलाने को,
दूर हुए जाते क्यों फैलाते तुम पुंज पहारों को।
दीप जलाये शिक्षक उर में आशा के, नवजीवन के,
सेवा निवृति के विरह झकोरे पवन चले उत्पीड़ण के।
गाऊँ क्या दिल उमग न पाता प्यारे जीना सुख पाना,
नेह-लता मुरझा नहीं जाये सिंचन सुधि लेते रहना।
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