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बेटे के लिए

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बेटे के लिए

थोर्ड़ ओवराज अपने पैरिश का सबसे अधिक संपन्न और प्रभावशाली व्यक्ति था।

एक दिन यकायक बहुत जल्दी में वह पादरी के पास पहुंचा और बोला - मेरे लड़का हुआ है और उसका नामकरण-संस्कार कराना चाहता हूँ।

उसका नाम क्या रखेंगे ?

अपने पिता के नाम पर - फिन !

और गवाह कौन होंगे ?

थोर्ड़ ने अपने पैरिश के कुछ प्रसिद्धतम सज्जनों और महिलाओं के नाम गिना दिए !

अच्छा और कुछ ? पादरी ने सर ऊपर उठाकर पूछा।

तोर्ड कुछ देर हिचकिचाने के बाद बोला - मैं चाहता हूँ यहीं गिरजे में लाकर उसका नाम रखने की रस्म अदा की जाए।

यानी इसी हफ्ते में किसी दिन ?

हाँ अगले शनीचर को बारह बजे दोपहर को।

ठीक। और कुछ ? पादरी ने पूछा

नहीं तो - कहकर थॉर ने अपनी टोपी उठा ली और उसे लपेट-सी देते हुए चलने का उपक्रम किया।

पादरी उठा - हाँ अभी एक बात बाकी है - और थोर्ड़ की तरफ बढ़ा और उसका हाथ पकड़कर और गंभीरतापूर्वक उसकी आँखों में अपनी दृष्टि गड़ाते हुए बोला - ईश्वर करे तुम्हारा बेटा तुम्हारे लिए वरदान सिद्ध हो !

सोलह वर्ष बाद !

आज थोर्ड़ फिर पादरी के पास आया था।

ओह, वाकई थोर्ड़ तुम अपनी जिंदगी बड़े मजे में बिताते हो, - पादरी ने कहा क्योंकि आज सोलह वर्ष बाद भी उसने थोर्ड़ में रत्ती भर भी कोई परिवर्तन नहीं पाया - क्योंकि मुझे कोई तकनीक नहीं है - थोर्ड़ के इस उत्तर में संतोष और प्रसन्नता की सुगंध थी।

पादरी चुप रहा, पर कुछ क्षणों बाद फिर पूछा - कहो आज क्या ख़ुशी की खबर है ?

कल मेरा बेटा नौकरी पर मुस्तकिल हो जाएगा।

बड़ा होनहार बेटा है।

और मैं पादरी को तब कोई दक्षिण नहीं देना चाहता, जब तक कि मुझे यह न मालूम हो जाए कि गिरजे में बेटे को कौन-सा स्थान मिलेगा।

उसे सबसे अगली जगह मिलेगी !

अच्छा तो फिर ठीक है। लीजिये यह दस डॉलर।

और कुछ मेरे योग्य सेवा ? पादरी ने डॉलर लेकर थोर्ड़ की तरफ टकटकी लगाकर पूछा। और तो कुछ नहीं ! सब कृपा है आपकी।

थोर्ड़ चला गया।

और भी आठ बरस निकल गए।

एक दिन पादरी साहब के कमरे के बाहर बड़ा शोर सुनाई पड़ता था, क्योंकि बहुत से लोग गिरजे में आ रहे थे।

उन सबके आगे-आगे थोर्ड़ था।

पादरी के कमरे में सबसे पहले थोर्ड़ घुसा।

पादरी ने नजर ऊपर उठाई और पहिचान लिया - आज तो तुम बड़े ठाठ के साथ आए हो थोर्ड़ ! कहो क्या मामला है ?

मैं इसलिए आया हूँ कि मेरे बेटे पर विवाह संबंधी नियम लागू कर दिए जाएं, क्योंकि गदमंद की लड़की कैरिन स्टोलिंदेन से उसकी शादी पक्की हो गई है।

गदमंद यह रहे - उसने अपने पास ही खड़े हुए एक सज्जन की ओर इशारा करके कहा।

ओह! तब तो वह इस पैरिश की सबसे धनी लड़की है।

सुनता तो हूँ - थोर्ड़ ने हाथ से सिर के बाल ऊपर करते हुए कहा।

कुछ देर तक पादरी चुप बैठा रहा, जैसे गहरे विचार में तल्लीन हो।

फिर अपने रजिस्टर में बिना कुछ बोले उन लोगों के नाम लिख लिए। और वहां पर गदमंद और थोर्ड़ ने तीन डालर मेज कर दिए।

दस्तखत करने के बाद थोर्ड़ ने तीन डालर मेज पर रख दिए।

मैं सिर्फ एक ही ले सकता हूँ - पादरी ने कहा।

सो तो ठीक है पर तो मेरा इकलौता बेटा है - बिलकुल इकलौता, इसलिए मैं उसकी शादी भी जरा शान के साथ करना चाहता हूँ। और तब पादरी ने वे तीनों डालर स्वीकार कर लिए। थोर्ड़ आज तुम तीसरी बार अपने बेटे की वजह से आए हो।

लेकिन अब तो मैं उससे निबट गया, थोर्ड़ ने कहा और अपनी पाकिट-बुक बंद करते हुए धन्यवाद देकर चला गया।

और उसके साथी भी पीछे-पीछे चले गए।

एक पखवारे के बाद -

दिन बहुत अच्छा लग रहा था।

नाव में बाप-बेटे झील पार कर रहे थे।

वे स्टोलिंदेन को ब्याहने जो जा रहे थे।

अरे! यह जगह तो खतरनाक है, फिन से अपनीसीट को सीधा करने के लिए उसपर से उठते हुए थोर्ड़ ने कहा।

जिस तख्ते पर फिन खड़ा हुआ था, वह उसी क्षण उसके पैरों तले से खिसक गया - उसने हाथ फेंके - चिल्लाया - और पानी में जा गिरा ! n

थोर्ड़ चीखा - ले यह पतवार पकड़ ले, और फ़ौरन खड़े होकर उसने पतवार फिन की तरफ फेंकी।

किन्तु फिन के हाथ में पतवार नहीं आई - उसने बहुतेरी कोशिश की और वह थककर अकड़ने भी लगा।

अच्छा जरा ठहरो - घबराओ नहीं - थोर्ड़ ने आश्वासन दिलाया और नाव को उसकी तरफ खेने लगा। तब तक बेटे ने पलटा खाया - एक आंसू भरी नजर से अपने बाप को देखा और गड़प हो गया !

थोर्ड़ को अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हो रहा था। नाव को एक ही जगह रोके हुए वह जगह को एकटक देखता रहा - जहाँ अभी-अभी फिन डूबा था - जैसे उस जगह को एकटक देखता रहा - जहाँ अभी-अभी फिन डूबा था - जैसे वह इंतजार कर रहा था कि अभी हाल ही मेरा ऊपर निकल आएगा।

उसी जगह पर पानी में कुछ बुलबुले उठे, कुछ और उठे - और फिर एक बड़ा -सा बुलबुला उठा और फूटा गया !

झील की सतह फिर दर्पण की तरह स्वच्छ और निर्मल हो गई !

तीन दिन और तीन रात! न कुछ खाया, न जरा भी सोया। बराबर उसी जगह के चारों तरफ नाव में थोर्ड़ चक्क्र काटता रहा !

बेटे की लाश तो अभी तक नहीं मिली थी उसे।

तीसरी रात खत्म होते-होते लाश ऊपर उतरा आई।

उसे गोद में लेकर वह पहाड़ी की ऊपर अपने बाग़ की तरफ चला।

करीब-करीब एक साल बाद।

पतझड़ की वह शाम।

कमरे के बाहर दालान में कुछ आहट सुनाई पड़ी- जैसे दरवाजे की कुण्डी खटखटा सा रहा था।

पादरी ने जाकर दरवाजा खोल दिया।

कमर झुकी हुई - सफेद बाल- लंबा और दुबला - एक आदमी कमरे में आ घुसा।

पादरी उसे काफी देर तक गौर से देखता रहा - तब खिन जाकर उसे पहिचान पाया। वह थोर्ड़ ही था।

इतनी देर में घर से निकले हो ? पादरी ने पूछा और फिर मौन होकर निश्छल खड़ा रह गया।

हाँ, देर तो हो गई - कहकर थोर्ड़ कुर्सी पर बैठ गया।

पादरी भी बैठ गया और जैसे कुछ प्रतीक्षा करने लगा।

समय बीतता जा रहा था और बहुत सारा बीत गया - पर दोनों के दोनों चुप रहे।

आखिरकार थोर्ड़ ने चुप तोड़ी - मैं गरीबो को कुछ देना चाहता हूँ - जिससे की मेरे बेटे का नाम चलता रहे।

यह कहकर वह उठा, और कुछ डालर मेज पर रख दिए और फिर बैठ गया। पादरी ने डालर गिने।

यह तो बहुत अधिक धन है, पादरी बोला।

यह मेरे बाग़ की आधी कीमत है - आज ही मैंने बेंच कर चूका हूँ।

फिर बहुत देर तक मौन बैठे रहने के बाद पादरी ने बड़ी विनम्रतापूर्वक कहा - तो फिर अब क्या करने का इरादा है ?

कुछ भलाई का काम!

थोड़ी देर तक दोनों फिर चुप बैठे रहे। थोर्ड़ की आँखे जमीन की तरफ झुक हुई थी और पाडर की आँखे थोर्ड़ की आँखे की तरफ।

फिर शांत और धीमे स्वर में पादरी ने कहा - मैं सोचता हूँ की अब वास्तव में तुम्हारा बेटा तुम्हारे लिए वरदान बन गया।

हां! मैं भी यह सोचता हूँ !

थोर्ड़ ने झुकी पलकें उठाकर कहा - और दो बड़े-बड़े आंसू सूखे झुर्रियोंदार गालों पर बह चले।

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रानी ने किला छोड़ दिया

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रानी ने किला छोड़ दिया

सत्ताईस फरवरी सन् 1954 में ईस्ट इंडिया कंपनी का लक्ष्मीबाई को यह आदेश मिला था कि वह मासिक वृत्ति स्वीकार कर ले।

उसे राज्य से कोई मतलब नहीं रहेगा।

उसके कुछ दिन बाद ही 25 मार्च 1854 को कंपनी सरकार ने झांसी के खजाने से 6 लाख रुपया निकाल लिया।

रानी कुछ नहीं कर पायी, वह देखती रह गई। पोलिटिकल एजेण्ट ने उसके संतोष के लिए उसे आश्वासन दिया।

उसने बतलाया कि कंपनी सरकार यह छः लाख रुपया दामोदर राव को बालिग होने पर ब्याज-सहित लौटा देगी। इस तरह रुपया ईस्ट इंडिया कंपनी के सरकारी खजाने में जमा हो गया।

प्रगट में रानी कुछ नहीं कह पाई; लेकिन भीतर ही भीतर उसके तन-बदन में आग लग गई।

उसने बहुत जब्त किया, समाई से काम लिया। उसे स्वयं अपने से डर लगने लगा कि कहीं उसके भीतर की लक्ष्मीबाई रणचंडी का रूप धारण न कर ले। रानी अंग्रेजों की करतूत देख रही थी।

उसने पांच हजार रुपये हीरे-जवाहरात, की अपने लिए वृत्ति स्वीकार कर ली थी, फिर भी उसे आदेश था कि वह किला छोड़ दे और शहर के महल में रहे।

यह कहा गया कि जब तक दामोदर राव बालिग नहीं होता तब तक राज्य की बागडोर कंपनी सरकार के हाथ में रहेगी और तभी वह छः लाख रुपया भी उसे मिश्रधन के रूप में मिल जाएगा।

इसके अलावा सोने-चांदी के गहने, मोती, पन्ना आदि के आभूषण, रानी को सौंप दिए गए कि जब तक दामोदर राव युवा नहीं होता, ये जवाहरात और ज़ेवर रानी के पास धरोहर रहेंगे।

सांझ का सूरज अस्ताचल की गोद में जा चुका था।

सान्ध्य-बेला थी। किसी का मिलन-पर्व। पक्षी बसेरे पर जा चुके थे।

उनका कलरव शांत हो चुका था। एक दासी ने आकर सूचना दी कि-“रानी साहब शहर के महल की सफाई हो गई है।

तशरीफ ले चलिए, सवारी बाहर खड़ी है।

आज तीसरी बार रोयी रानी। उसकी आंखों से दो बड़े-बड़े आंसू गिरे।

उसने पति का शयन-कक्ष देखा और पुत्र का पालना।

उसने दरबार देखा, फिर देखा अपनी सखियों की ओर। मुंदर से आंखें मिलीं तो वे भर आईं और सुंदर से दृष्टि का साक्षात्कार होते ही आंसू पलकों तक आ गए।

फिर काशी की ओर देख नहीं पाई रानी, आंसू चू पड़े।

रानी ने किला छोड़ दिया।

वह नगर के महल में चली आयी। दामोदर राव उसके साथ था।

वह उसे अपनी जिंदगी का सहारा समझती। उसका सखी-समाज उसके साथ आया था, किले में कोई नहीं रहा। उसके विश्वस्त सभासद भी उसके साथ थे।

धीरे-धीरे एक साल बीत गया। रानी को ईस्ट इंडिया कंपनी से जो पांच हजार रुपये की पेंशन बंधी थी, वह प्रतिमास मिल जाती।

रानी भी राज्यकार्य में हस्तक्षेप नहीं करती। वह उस दिन की प्रतीक्षा कर रही थी, जब दामोदर राव जवान होगा।

कंपनी सरकार के प्रति रानी के मन में विद्रोह की भावना घर कर गई थी। वह अंग्रेजों से न्याय चाहती थी, लेकिन वहां सुनवाई नहीं होती। किसी की बात पर भी ध्यान नहीं दिया जाता।

देश की जनता बहुत दुखी थी। वह अत्याचार सहते-सहते दुखिया हो गई थी। किसानों से कर बेरहमी से वसूल किया जाता।

न देने पर उनके जानवर खोल लिए जाते। झगड़ा करने पर उनकी झोंपड़ी जला दी लाती। यदि कोई हमलावर होता तो उसे गोली से उड़ा दिया जाता।

इस तरह देश क्रांति के रंग में रंग रहा था। लोगों के मुंह बंद थे; लेकिन उनके भीतर आजादी की आग जल रही थी।

10 मई को प्रातःकाल मेरठ की छावनी में सैनिकों ने कुछ गड़बड़ी की।

यह सन् 1859 था। गदर की नींव यहीं से पड़ी। इंगलैंड से भारत में जो कारतूस आते थे, उन पर गाय और सूअर की चर्बी लगी होती।

उनका प्रयोग करने से पहिले उन्हें दांतों से काटना पड़ता था। भारतीय सैनिक इससे परहेज करते। 10 मई 1859 को मेरठ छावनी में सैनिकों ने कारतूस चलाने से इनकार कर दिया। वे विद्रोही हो गए।

रानी को यह समाचार मिला। वह भी योजना बनाने लगी कि अब वह समय दूर नहीं, जब कि वह अंग्रेजों से लोहा लेगी।

रानी अपने सखी-समाज में बैठी देर तक मंत्रणा करती रही। उसके बाद ही उसे नित्य नए समाचार मिलने लगे, कि दिल्ली में

भी क्रांति की लहर दौड़ गई है। भारतीय सैनिक अंग्रेजों के दुश्मन हो रहे हैं। आगरा में भी हलचल मच गई।

अंग्रेजों की रेजिडेंसी में भगदड़ मच गई।

रानी ने दोनों मुट्ठियां बांधी, अपनी बांहों को तौला और फिर भाला उठाया हाथ में।

वह देवी के सम्मुख नत हो गयी, और बोली, “मां दुर्गे! मैं रणचण्डी बनूंगी, मेरी इच्छा पूरी हो मां! मैं देश की आजादी के लिए लडूंगी। भगवती दुर्गा मुझे शक्ति दे।"

बस फिर क्या था, रानी का महल एक अच्छा-खासा अखाड़ा बन गया।

दिन भर वहां शस्त्र-अस्त्रों का अभ्यास होता। सेना का मोर्चा बनाया जाता। उसकी ब्यूह-रचना कभी काशी करती, कभी सुंदर। मुंदर का हाथ कमाल का था। वह तलवार बहुत अच्छी चलाती।

बालक दामोदर राव भी पीछे नहीं रहता, वह भी उस अभ्यास में भाग लेता। रानी को यह देखकर प्रसन्नता होती।

वह कभी-कभी अपने सहयोगी रामचन्द्र राव से कह देती-“देखो, राव! दामोदर राव शूर-वीर होगा। इसीलिए उसकी शिक्षा का भार मैंने अपने ऊपर ले रखा है।"

झांसी के किले में अंग्रेज सैनिकों से भारतीय सैनिकों की संख्या अधिक थी।

दोनों पक्षों में असंतोष फैलता जा रहा था। चिनगारी भीतर ही भीतर सुलग रही थी। वह एक दिन भड़कने वाली थी। रानी को भी इस रहस्य का पता था।

वह अवसर की प्रतीक्षा में थी कि तनिक भी विद्रोह भड़के और मैं तलवार लेकर अंग्रेजों के सामने मैदान में आ जाऊं।

रानी ने किला छोड़ दिया

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