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रानी लक्ष्मी बाई की कहानी

रानी लक्ष्मी बाई की कहानी

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रानी लक्ष्मी बाई की कहानी

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने अपने मुट्ठी भर सैनिकों के साथ मिलकर अग्रेजी साम्राज्य की नींव हिला दी । भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की क्रांति की देवी, जिसने भारत के वीरों में क्रांति की ज्वाला भर दी । देश को अग्रेजों से स्वतंत्र कराने के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी ।

महारानी लक्ष्मीबाई का जन्म काशी के असीघाट वाराणसी जिले में 19 नवम्बर 1828 को एक मराठी ब्राह्मण परिवार में हुआ था तथा निधन 18 जून 1858 को हुआ था। उसके ‘मणिकर्णिका’ रखा गया परन्तु प्यार से मणिकर्णिका को ‘मनु’ पुकारा जाता था। इनके पिता का नाम मोरोपंत तांबे और माता का नाम ‘भागीरथी बाई’ था। जब उनकी उम्र 12 साल की थी, तभी उनकी शादी झांसी के राजा गंगाधर राव के साथ कर दी गई। रानी लक्ष्मीबाई ने कम उम्र में ही साबित कर दिया कि वह न सिर्फ बेहतरीन सेनापति हैं बल्कि कुशल प्रशासक भी हैं. वह महिलाओं को अधिकार संपन्न बनाने की भी पक्षधर थीं. उन्होंने अपनी सेना में महिलाओं की भर्ती की थी। आज कुछ लोग जो खुद को महिला सशक्तिकरण का अगुआ बताते हैं वह भी स्त्रियों को सेना आदि में भेजने के खिलाफ हैं पर इन सब के लिए रानी लक्ष्मीबाई एक उदाहरण हैं कि अगर महिलाएं चाहें तो कोई भी मुकाम हासिल कर सकती हैं।

तेरह नवंबर सन् 1835 में मोरोपन्त तांबे के गृह में एक कन्या रत्नं ने जन्म लिया।

उसका नाम माता भगीरथीबाई ने मनूबाई रखा। मोरोपन्त तांबे जाति के ब्राह्मण थे। वे सतारा जिला के रहने वाले थे।

परिस्थितियां और जीविज्ञा उन्हें परदेश ले आई। वे काशी-प्रवास कर रहे थे, उनके कोई सन्तान नहीं थी।

बहुत दिनों की आशा-प्रतीक्षा के बाद उन्होंने कन्या का मुंह देखा। दम्पती ने खूब खुशियां मनाईं। उनके आनन्द का पारवार न रहा।

मोरोपन्त तांबे एक कुशल पंडित थे और ज्योतिष विद्या पर भी उनका पूर्ण अधिकार था। नगर बनारस में उनकी प्रतिष्ठा थी।

लोग सम्मान करते और उन्हें आदर की दृष्टि से देखते थे। उनकी पत्नी का स्वभाव भी सरल था। वह मृदु-भाषिणी थी।

मनूबाई को जब वह गोद में लेती तो सुंदर-सुंदर सपने देखती कि वह अपनी लड़की का विवाह बड़ी धूम-धाम से करेगी।

मोरोपन्त तांबे मन ही मन ईश्वर को सराह रहे थे कि वास्तव में उन्हें जीवन का सच्चा सुख अब मिला है। वे भी कन्या को देखकर फूले नहीं समाते।

अधिक चिंता और सोचने के कारण भगीरथी बाई का स्वास्थ्य खराब हो गया था, यद्यपि मनूबाई के जन्म के बाद उनकी तंदुरुस्ती में कुछ सुधार अवश्य हुआ; किंतु वे पूर्णतया नीरोग नहीं हो पाईं। मनूबाई दो-तीन महीने ही मां की गोद में खेली। एक दिन वह गोद उससे छिन गई।

भगीरथी बाई चल बसी। उन्हें केवल दो-तीन दिन ज्वर आया और उसी में उनका प्रणान्त हो गया। मोरोपन्त माथा पीटकर रह गए। उन्होंने पुत्री को गले से लगा लिया और पत्नी का दुःख भूलने का प्रयत्न करने लगे।

मोरोपन्त तांबे मनु-बाई को इतना प्यार करते कि वे उसे छोड़कर कहीं नहीं जाते। वे मां की तरह उसका लालन-पालन कर रहे थे। अभी वे युवा थे। लोगों ने उन्हें दूसरा ब्याह करने की सलाह दी; किंतु वे उस पर सहमत नहीं हुए।

उनका कहना था कि मैं अपनी पुत्री का पालन-पोषण करूंगा। मुझे ब्याह की इच्छा नहीं, मैं सादा जीवन व्यतीत करूंगा।

एक बात और थी। जब से भगीरथी बाई की मृत्यु हुई, तांबे का मन काशी में नहीं लग रहा था। वे काशी छोड़ना चाहते थे; लेकिन गंगा-तट नहीं।

गांगाजी पर उनकी अपार श्रद्धा थी, उनके सहारे से काशी आकर रहने का एक कारण यह भी था।

संयोग की बात-एक बार झांसी के राज्य-ज्योतिषी काशी आए। दशाश्वमेध घाट पर मोरोपंत तांबे की उनसे भेंट हुई।

उन्होंने उन्हें प्रेरणा दी और कहा कि तुम चलकर बिठूर में रहो, वहां भी गंगा का किनारा है। मेरे द्वारा तुम्हें वहां दरबार में स्थान मिल जाएगा। बिठूर के पेशवा लोगों का बोल-बाला है।

झांसी के राज-ज्योतिषी की बातों पर मोरोपन्त तांबे ने खूब गहराई के साथ विचार किया। उसे लगने लगा कि वह बिठूर में जाकर अपना जीवन आनंदपूर्वक व्यतीत कर सकेगा। अतः कुछ दिन बाद उसने मनु-बाई को लेकर बिठूर की यात्रा आरम्भ कर दी।

मार्ग में जितना कष्ट मिला और जो संकट भोगने पड़े, मोरोपन्त तांबे वे सब बिठूर आकर भूल गए।

अब मनु-बाई उनकी जिंदगी का एक मात्र सहारा थी। दूज के चन्द्र की भांति वह धीरे-धीरे बढ़ रही थी।

तांबे उसे खेल में मगन पाता तो दूर से उसका आनंद लेता। उसे पत्नी की सुधि आ जाती तो आंखें भर आतीं, चेहरे पर मुस्कान दौड़ जाती। वह मन ही मन कहता-“कि देखो भगीरथी “तुम्हारी गुड़िया कैसी खेल रही है। दोनों आंखों से नहीं, उसे एक आंख बंद करके देखना, नहीं तो नज़र लग जाएगी।"

इसके बाद यह होता कि मनु-बाई बाप की गोद में होती और वह उसके प्यार में निहाल हो जाता।

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