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राजगुरू ने जाना पापकर्म का मूल raajaguroo ne jaana paapakarm ka mool

राजगुरू ने जाना पापकर्म का मूल raajaguroo ne jaana paapakarm ka mool

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राजगुरू ने जाना पापकर्म का मूल raajaguroo ne jaana paapakarm ka mool

राजा ने अपने दरबार के सभासदों से पूछा- “बताइए पाप का जनक कौन होता है ?

लेकिन कोई जवाब नहीं मिला। तब राजगुरु कौ और राजा की दृष्टि घूमी।

यद्यपि राजगुरु परमज्ञानी थे, किंतु तत्काल उन्हें भी कोई उत्तर नहीं सूझा।

राजा ने उन्हें उत्तर देने के लिए एक सप्ताह का समय दिया। काफी चिंतन-मनन के बाद भी राजगुरु को कोई सटीक उत्तर नहीं मिला।

डर के मारे उन्होंने राजधानी छोड़ दी। चलते-चलते एक गांव में पहुंचे।

वहां एक मकान के चबूतरे पर वे थककर बैठ गए। तभी उस मकान से एक युवती बाहर निकली।

उसने राजगुरु से पूछा- 'आप कौन हैं ?” राजगुरु ने बताया- “मैं इस राज्य के राजा का राजगुरु हूं।

परन्तु तुम कौन हो ?' युवती ने कहा- “मैं एक गणिका हूं।

यह सुनते ही राजगुरु पीछे हट गए। गणिका ने राजगुरु से पूछा- “आप इतने परेशान क्यों लग रहे हैं ?

” राजगुरु ने उसे सारी बात बताई। गणिका ने कहा- “इस प्रश्न का उत्तर मेरे पास है, किन्तु आपको मेरे घर चलना होगा।

' यह सुनते ही राजगुरु क्रोध में बोले- “तुम्हारी तो छाया तक से पाप लगता है।

' गणिका ने कहा- “आपकी इच्छा, किन्तु ब्राह्मण देवता को दक्षिणा देना मेरा फर्ज है।' यह कहकर उसने पांच सोने की मुहरें उन्हें दी और उसके घर आए। जब गणिका ने उन्हें पानी पिलाना चाहा, तो उन्होंने ब्राह्मण होने का हवाला देकर उसके हाथ से पानी पीने को निषिद्ध बताया।

गणिका ने उन्हें दस सोने की मुहरें और भेंट की।

फिर तो उन्होंने पानी भी पिया और भोजन भी किया।

तब गणिका बोली- 'अब तो आप समझ गए न कि पाप का जनक होता है लोभ।' राजगुरु निरुतर हो गए। उन्हें राजा के प्रश्न का उत्तर मिल चुका था।

कथा का सार है कि कर्म और भाग्य से अधिक पाने का लोभ सदैव पापकर्म कराता है।

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