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मोह से नहीं मिली मुक्ति moh se nahin milee mukti

मोह से नहीं मिली मुक्ति moh se nahin milee mukti

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मोह से नहीं मिली मुक्ति moh se nahin milee mukti

मरने के बाद भी मोह से नहीं मिली मुक्ति

किसी गांव में एक संत आए। उनकी ख्याति सुनकर गांव का एक वृद्ध किसान उनसे मिलने पहुंचा।

उसने अपने कुछ कष्ट बताए और मुक्ति की राह पूछी। संत बोले- 'तुम वृद्ध हो गए हो, चलो में तुम्हें अपने साथ भक्ति के मार्ग पर लिए चलता हूं।

ऐसा करने से तुम कष्टों से पूर्णतः मुक्त हो जाओगे।' किसान को अपने परिवार से मोह था।

वह बोला- “महाराज, जरा पोते, पोतियों के साथ समय गुजार लू फिर मैं आपके साथ चलूंगा।' संत ने हामी भर दी।

कुछ वर्षो के बाद संत वापस आए तो वृद्ध किसान बोला- “जरा अपने पोते, पोतियों का विवाह देख लूं फिर मैं आपके साथ चलूंगा।

संत ने हामी भर दी। कुछ वर्षो के बाद फिर संत आए तो उन्होंने देखा कि वृद्ध किसान के घर के बाहर एक कुत्ता बैठा है।

संत ने योगबल से जान लिया कि वृद्ध किसान की मृत्यु हो गई है और अब उसने इस कुत्ते के रूप में नया जन्म लिया है।

मृत्यु तक रिश्तों के मोह में पड़े रहने से उसे कुत्ते का जन्म मिला है।

संत ने योगबल से कुत्ते को उसके पूर्वजन्म को याद दिलाई तो वह बोला- “मेरे पड़पोते, पड॒पोतियां अभी नादान हैं। आजकल जमाना खराब है।

मुझे उनकी रखवाली करनी है। वो थोड़े समझदार हो जाएं फिर आपके साथ चलूंगा।

संत हंसकर बोले- ' अब नहीं आउंगा क्योंकि तुम फिर कोई बहाना खोज लोगे।

' सार यह है कि संसारी जीव कभी अपने परिवार के मोह से मुक्त नहीं हो पाता।

इंसान पूरा जीवनकाल अपने परिवार के प्रति दायित्वों को निभाता है।

लेकिन जब वह अपने जीवन के अंतिम पड़ाव पर होता है, तब भी वो रिश्तों के मोह में बंधा रहता है।

इंसान को चाहिए कि कम से कम वृद्धावस्था में तो रिश्तों का मोह त्यागे और ईश्वर का नाम स्मरण कर मोक्ष का रास्ता पकडे।

 

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मोह से नहीं मिली मुक्ति moh se nahin milee mukti

साध्वी महालक्ष्मी सुबह बगीचे में जाकर कबूतरों को दाना खिलाती थी।

यह उनका प्रतिदिन का नियम था।

शेष समय वह अध्ययन और आध्यात्मिक चर्चा में व्यतीत करती थी।

साध्वी महालक्ष्मी जिस बगीचे में जाकर कबूतरों को दाना चुगाती थी वहां पर कई नौजवान युवक सुबह टहलने आते थे।

एक दिन साध्वी महालक्ष्मी सुबह बगीचे में कबूतरों को दाना चुगा रही थी और नौजवान युवक इधर-उधर टहल रहे थे।

साध्वी ने कुछ सोचा और अचानक जोर-जोर से हंसने लगी। सभी युवक हंसी सुनकर साध्वी के पास पहुंच गए और हंसने का कारण पूछने लगे।

साध्वी बोली- “मैं इसलिए हंसी कि जिस धरती पर तुम जैसे सजीले, सुंदर और बलिष्ठ नौजवान हों, वह धरती कितनी भाग्यशाली है।

मेरी हंसी वास्तव में ईश्वर के प्रति आभार है।' युवक यह सुनकर बहुत खुश हुए।

साध्वी फिर से कबूतरों को दाना चुगाने में व्यस्त हो गई।

फिर अचानक थोडी देर बाद वह जोर-जोर से रोने लगी। उनका रोना देख सारे युवक बेचेन हो गए और उनसे रोने का कारण पूछने लगे।

साध्वी ने कहा- 'पहले तो मैं यह देखकर हंसी थी कि धरती पर कितने युवा हैं, लेकिन अब मैं रोई तो इसलिए कि सारे युवा सेवा की भावना से दूर हैं।

यदि युवा अपनी शक्ति का उपयोग सृजनात्मक कार्यो के साथ सेवा में करे, तो जगत्‌ का कल्याण हो जाएगा।

पर ऐसा न होते देखकर मेरे आंसू निकल आए।* युवकों ने अपनी भूल स्वीकारी।

साध्वी ने उन्हें प्रेरित किया कि यदि उनसे कोई बड़ी सेवा न हो सके, तो वे प्यासे को पानी, परिंदों को दाना और मीठी बोली बोलकर ही सुकून पहुंचाएं।

वस्तुत: युवावस्था की उर्जा को सदकार्यों में लगाना आत्मिक शांति का वाहक तो बनता ही है, समाज को सकारात्मक परिणाम देकर उसकी उन्नति का मार्ग भी खोलता हे।

 

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