घमंड कुल्हाड़ी हुई निरुत्तर ghamand kulhadi hui niruttar
एक बार कुल्हाड़ी और लकड़ी के एक डंडे में विवाद छिड़ गया। दोनों स्वयं को शक्तिशाली बता रहे थे। हालाँकि लकड़ी का डंडा बाद में शांत हो गया, किन्तु कुल्हाड़ी का बोलना जारी रहा।
कुल्हाड़ी में घमंड अत्यधिक था।
वह गुस्से में भरकर बोल रही थी। तुमने स्वयं को समझ क्या रखा है ?
तुम्हारी शक्ति मेरे आगे पानी भरती है। मैं चाहूँ तो बड़े-बड़े वृक्षों को पल में काटकर गिरा दूँ। धरती का सीना फाड़कर उसमें तालाब, कुआ बना दूँ। तुम मेरी बराबरी कर पाओगे ?
मेरे सामने से हट जाओ अन्यथा तुम्हारे टुकड़े-टुकड़े कर दूंगी ।
लकड़ी का डंडा कुल्हाड़ी की अँहकारपूर्ण बातों को सुनकर धीरे से बोला - तुम जो कह रही हो, वह बिल्कुल ठीक है, किन्तु तुम्हारा ध्यान शायद एक बात की और नहीं गया।
जो कुछ तुमने करने को कहा है, वेशक तुम कर सकती हो, किन्तु अकेले अपने दम पर नहीं कर सकती।
कुल्हाड़ी ने चिढ़कर कहा, क्यों ?
मुझमें किस बात की कमी है ?
डंडा बोला - जब तक मैं तुम्हारी सहायता न करूं, तुम यह सब नहीं कर सकती हो
जब तक मैं हत्या बनकर तुममें न लगाया जाऊं, तब कोई किसे पकड़कर तुमसे ये सारे काम लेगा ?
बिना हत्थे की कुल्हाड़ी से कोई काम लेना असंभव है। कुल्हाड़ी को अपनी भूल का एहसास हुआ और उसने डंडे से क्षमा मांगी।
कथासार यह है कि दुनिया सहयोग से चलती है।
जिस प्रकार ताली दोनों हाथों के मेल से बजती है, उसी प्रकार सामाजिक विकास भी परस्पर सहयोग से ही संभव होता है।
घमंड कुल्हाड़ी हुई निरुत्तर ghamand kulhadi hui niruttar