“जो कुछ हो, मैं न सम्हालूँगा इस मधुर भार को जीवन के.
आने दो कितनी आती हैं बाधायें दम-संयम बन के ।
नक्षत्रो, तुम क्या देखोगे-इस ऊषा की लाली क्या है?
संकल्प भर रहा है उनमें संदेहों की जाली क्या है?
कौशल यह कोमल कितना है सुषमा दुर्भेद्य बनेगी क्या?
चेतना इंद्रियों की मेरी मेरी ही हार बनेगी क्या?”
“पीता हूँ, हाँ, मैं पीता हूँ-यह स्पर्श, रूप, रस, गंध भरा,
मधु, लहरों के टकराने से ध्वनि में है क्या गुंजार भरा।
तारा बनकर यह बिखर रहा क्यों स्वप्नों का उन्माद अरे!
मादकता-माती नींद लिये सोऊँ मन में अवसाद भरे।
चेतना शिथिल-सी होती है उन अंधकार की लहरों में,
मनु डूब चले धीरे-धीरे रजनी के पिछले पहरों में ।
उस दूर क्षितिज में सृष्टि बनी स्मृतियों की संचित छाया से,
इस मन को है विश्राम कहाँ! चंचल यह अपनी माया से।
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