महारानी लक्ष्मीबाई
तेरह नवंबर सन् 1835 में मोरोपन्त तांबे के गृह में एक कन्या रत्नं ने जन्म लिया।
उसका नाम माता भगीरथीबाई ने मनूबाई रखा। मोरोपन्त तांबे जाति के ब्राह्मण थे। वे सतारा जिला के रहने वाले थे।
परिस्थितियां और जीविज्ञा उन्हें परदेश ले आई। वे काशी-प्रवास कर रहे थे, उनके कोई सन्तान नहीं थी।
बहुत दिनों की आशा-प्रतीक्षा के बाद उन्होंने कन्या का मुंह देखा। दम्पती ने खूब खुशियां मनाईं। उनके आनन्द का पारवार न रहा।
मोरोपन्त तांबे एक कुशल पंडित थे और ज्योतिष विद्या पर भी उनका पूर्ण अधिकार था। नगर बनारस में उनकी प्रतिष्ठा थी।
लोग सम्मान करते और उन्हें आदर की दृष्टि से देखते थे। उनकी पत्नी का स्वभाव भी सरल था। वह मृदु-भाषिणी थी।
मनूबाई को जब वह गोद में लेती तो सुंदर-सुंदर सपने देखती कि वह अपनी लड़की का विवाह बड़ी धूम-धाम से करेगी।
मोरोपन्त तांबे मन ही मन ईश्वर को सराह रहे थे कि वास्तव में उन्हें जीवन का सच्चा सुख अब मिला है। वे भी कन्या को देखकर फूले नहीं समाते।
अधिक चिंता और सोचने के कारण भगीरथी बाई का स्वास्थ्य खराब हो गया था, यद्यपि मनूबाई के जन्म के बाद उनकी तंदुरुस्ती में कुछ सुधार अवश्य हुआ; किंतु वे पूर्णतया नीरोग नहीं हो पाईं। मनूबाई दो-तीन महीने ही मां की गोद में खेली। एक दिन वह गोद उससे छिन गई।
भगीरथी बाई चल बसी। उन्हें केवल दो-तीन दिन ज्वर आया और उसी में उनका प्रणान्त हो गया। मोरोपन्त माथा पीटकर रह गए। उन्होंने पुत्री को गले से लगा लिया और पत्नी का दुःख भूलने का प्रयत्न करने लगे।
मोरोपन्त तांबे मनु-बाई को इतना प्यार करते कि वे उसे छोड़कर कहीं नहीं जाते। वे मां की तरह उसका लालन-पालन कर रहे थे। अभी वे युवा थे। लोगों ने उन्हें दूसरा ब्याह करने की सलाह दी; किंतु वे उस पर सहमत नहीं हुए।
उनका कहना था कि मैं अपनी पुत्री का पालन-पोषण करूंगा। मुझे ब्याह की इच्छा नहीं, मैं सादा जीवन व्यतीत करूंगा।
एक बात और थी। जब से भगीरथी बाई की मृत्यु हुई, तांबे का मन काशी में नहीं लग रहा था। वे काशी छोड़ना चाहते थे; लेकिन गंगा-तट नहीं।
गांगाजी पर उनकी अपार श्रद्धा थी, उनके सहारे से काशी आकर रहने का एक कारण यह भी था।
संयोग की बात-एक बार झांसी के राज्य-ज्योतिषी काशी आए। दशाश्वमेध घाट पर मोरोपंत तांबे की उनसे भेंट हुई।
उन्होंने उन्हें प्रेरणा दी और कहा कि तुम चलकर बिठूर में रहो, वहां भी गंगा का किनारा है। मेरे द्वारा तुम्हें वहां दरबार में स्थान मिल जाएगा। बिठूर के पेशवा लोगों का बोल-बाला है।
झांसी के राज-ज्योतिषी की बातों पर मोरोपन्त तांबे ने खूब गहराई के साथ विचार किया। उसे लगने लगा कि वह बिठूर में जाकर अपना जीवन आनंदपूर्वक व्यतीत कर सकेगा। अतः कुछ दिन बाद उसने मनु-बाई को लेकर बिठूर की यात्रा आरम्भ कर दी।
मार्ग में जितना कष्ट मिला और जो संकट भोगने पड़े, मोरोपन्त तांबे वे सब बिठूर आकर भूल गए।
अब मनु-बाई उनकी जिंदगी का एक मात्र सहारा थी। दूज के चन्द्र की भांति वह धीरे-धीरे बढ़ रही थी।
तांबे उसे खेल में मगन पाता तो दूर से उसका आनंद लेता। उसे पत्नी की सुधि आ जाती तो आंखें भर आतीं, चेहरे पर मुस्कान दौड़ जाती। वह मन ही मन कहता-“कि देखो भगीरथी “तुम्हारी गुड़िया कैसी खेल रही है। दोनों आंखों से नहीं, उसे एक आंख बंद करके देखना, नहीं तो नज़र लग जाएगी।"
इसके बाद यह होता कि मनु-बाई बाप की गोद में होती और वह उसके प्यार में निहाल हो जाता।
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने अपने मुट्ठी भर सैनिकों के साथ मिलकर अग्रेजी साम्राज्य की नींव हिला दी । भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की क्रांति की देवी, जिसने भारत के वीरों में क्रांति की ज्वाला भर दी । देश को अग्रेजों से स्वतंत्र कराने के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी ।
महारानी लक्ष्मीबाई का जन्म काशी के असीघाट वाराणसी जिले में 19 नवम्बर 1828 को एक मराठी ब्राह्मण परिवार में हुआ था तथा निधन 18 जून 1858 को हुआ था। उसके ‘मणिकर्णिका’ रखा गया परन्तु प्यार से मणिकर्णिका को ‘मनु’ पुकारा जाता था। इनके पिता का नाम मोरोपंत तांबे और माता का नाम ‘भागीरथी बाई’ था। जब उनकी उम्र 12 साल की थी, तभी उनकी शादी झांसी के राजा गंगाधर राव के साथ कर दी गई। रानी लक्ष्मीबाई ने कम उम्र में ही साबित कर दिया कि वह न सिर्फ बेहतरीन सेनापति हैं बल्कि कुशल प्रशासक भी हैं. वह महिलाओं को अधिकार संपन्न बनाने की भी पक्षधर थीं. उन्होंने अपनी सेना में महिलाओं की भर्ती की थी। आज कुछ लोग जो खुद को महिला सशक्तिकरण का अगुआ बताते हैं वह भी स्त्रियों को सेना आदि में भेजने के खिलाफ हैं पर इन सब के लिए रानी लक्ष्मीबाई एक उदाहरण हैं कि अगर महिलाएं चाहें तो कोई भी मुकाम हासिल कर सकती हैं।
अब मनूबाई तीन साल की हो गई थी।
वह नाना के साथ दिनभर खेलती, दोनों में बहुत अधिक स्नेह हो गया था।
नाना बाजीराव पेशवा का दत्तक पुत्र था। वह राजकुमार था और राजमहलों में रहता था।
बालिका मनूबाई को वह बहन के समान प्यार करता वह उसे अत्यंत स्नेह करता था।
मनूबाई और राजकुमार नाना, दोनों ही बच्चे होनहार थे। वे आपस में प्रेम से खेलते।
किसी ने भी नहीं देखा कि कभी उनमें झगड़ा हुआ हो। दोनों बहुत तेज दौड़ते थे। पांच साल की अवस्था में ही मनूबाई इतनी निपुण हो गई थी कि वह छोटे-मोटे नाले को छलांग द्वारा फांद जाती-उसकी भी शिक्षा महल में ही होती।
राजकुमार के साथ वह घोड़े की सवारी करती। हथियारों का चलाना सीखती।
वे दोनों साथ ही साथ शस्त्र-अस्त्र चलाने का अभ्यास करते। यह देख राय साहब तो प्रसन्न होते ही मोरोपन्त तांबे भी अपनी पुत्री पर बलि-बलि जाते। उन्हें मन ही मन गर्व
होने लगता कि उन्हें बड़ी होनहार बेटी मिली है।
मनूबाई स्वभाव की बड़ी चपल थी। उसकी छवि बड़ी आकर्षक थी।
कुशाग्र बुद्धि के कारण ही उसका उपनाम छबीली पड़ गया। लोग उसे प्यार से यही नाम लेकर पुकारते और छबीली दौड़ी चली आती।
मनूबाई की शिक्षा-दीक्षा लड़कों के साथ हो रही थी। उसमें स्त्रियोचित लाज-डर झिझक और संकोच कुछ भी नहीं था। जो कुछ भी था वह जीवट और साहस। वह रामायण की कथा ध्यानपूर्वक सुनती।
महाभारत की गाथाएं उसमें साहस का संचार करतीं। उसमें पुरुषार्थ इस अल्पायु से ही समाता जा रहा था।
मनूबाई अब सात साल की हो गई थी। उसका अध्ययन अनवरत रूप से चल रहा था। घुड़सवारी वह खूब करती। तलवार चला लेती।
सैनिकों की देख-रेख में राजकुमार के साथ जंगल में शिकार के लिए जाती। उसके साहस को जो भी देखता, दांतों तले उंगली दाब लेता।
मनूबाई के पिता मोरोपन्त तांबे को ही वह प्रिय नहीं थी बल्कि पूरा राज-घराना मनूबाई पर जान देता।
प्रत्येक उसके लिए मंगल की कामना करता। वह पढ़ती तो खूब मन लगाकर। खेलती सुधबुध खोकर और जब हथियार चलाना सीखती तो सतर्क रहती, चैतन्य हो जाती और दौड़ते समय तो उसमें बिजली सी भर जाती।
इस छोटी सी ही उम्र में मनूबाई ने तैरना भी सीख लिया था। बरसात की चढ़ी गंगा में भी वह तैरती।
गोता लगा जाती और फिर उछल कर बाहर आती। उसका यह कौतुक देखकर लोग आश्चर्य करते और कहते कि यह ईश्वर की देन है। वैसे मोरोपन्त तांबे का ऐसा भाग्य कहां जो उसे यह संतान मिलती!
राज ज्योतिषी तांता जी भी मनूबाई को बहुत चाहते थे। वे उसे पुत्रिवत् स्नेह करते, ज्ञान की बातें सिखलाते।
उसे ऐसी प्रेरणा देते जिससे उसमें स्फूर्ति आती और साहस का संचार होता। वह नानाराव के साथ अपना सारा समय व्यतीत करती।
कमाल की बात, उसने इस छोटी सी अवस्था में ही शतरंज का खेल भी सीख लिया था।
नानाराव के साथ जब फड़ बिछाकर बैठती तो उसे मात दिए बिना नहीं रहती। वह छूटते ही कहती कि अपनी शह बचाओ राजकुमार, नहीं तो बाजी अभी मात होती है।
नानाराव हंसने लगता और हंसते-हंसते बाजी हार जाता। फिर जब उसकी पारी आती वह जीतता तो मनूबाई को तंग करता, अपनी छबीली को चिढ़ाता।
घुड़दौड़ के लिए जब दोनों मैदान में जाते और घोड़ों की पीठ पर बैठते तो उनमें आपस में होड़ लगती कि देखू किसका घोड़ा आगे जाता है।
तलवार चलाने में भी दोनों दक्ष थे। वे घंटों अभ्यास करते फिर भी नहीं थकते। अध्ययन में भी दोनों की रुचि थी। वे मन लगाकर पढ़ते। शिक्षक दोनों से संतुष्ट थे।
राजमहल की स्त्रियां जब मनूबाई को छबीली कहकर पुकारती तो वह हंसवार उनके पास आ जाती। अधिक स्नेह करने वाली के गले से लिपट जाती। दुलार दिखलाती, प्यार जताती।
वह किसी को भी गैर नहीं समझती, सबमें बड़ी जल्दी घुल-मिल जाती।
उसका स्वभाव बड़ा ही सरल और सादगी से पूर्ण था। केवल खेलकूद के समय वह चपल और चंचल मालूम होती।
राजकुमार नानाराव मनूबाई को बहुत स्नेह करता। वह उसके बिना भोजन नहीं करता।
उससे अवस्था में तीन चार साल बड़ा था। इस नाते उसे छोटी बहन समझता। उसका साथ उसे ऐसा लगता जैसे भाई और बहन का कि भाई आगे चलता है तो बहन उसकी मंगल कामना करती हुई पीछे भागती है। वह भाई के दुःख को अपना दुःख समझती और सुख में हंसती हुई दिखलाई पड़ती।
खेलकूद के दौरान या शस्त्र और अस्त्र के अभ्यास में अथवा दौड़-धूप में जब कभी छबीली के चोट लग जाती। वह रोने लगती तो नानाराव उदास हो जाता।
वह रोनी सी सूरत बना लेता। तभी मनूबाई हंसकर बोल उठती कि “वाह चोट मेरे लगी और उदास तुम हो गए, लो मैं रोई कहां, मैं तो हंस रही हूं। बहादुर लोग कभी रोते नहीं।
वे सीने में घाव लगने पर भी हंसते रहते हैं।" इस पर नाना भी हंस देता और फिर दोनों मिलकर इतना हंसते कि हंसते-हंसते लोट-पोट हो जाते।
राजमहल में कौन ऐसा था जिसे छबीली से प्यार नहीं था। वह बालिका बड़ी आकर्षक छवि की थी।
स्फूर्ति उसकी रग-रग में समा रही थी।
उसकी बुद्धि बड़ी प्रखर थी। कार्य कलापों से ही नहीं देखने में भी वह विलक्षण लगती थी।
छबीली उसका प्यार और दुलार का नाम था। वह मनूबाई थी, मोरोपन्त तांबे की पुत्री जो अब राजकुमारियों जैसी शिक्षा-दीक्षा पा रही थी।
राजा गंगाधर राव ने ईस्ट इंडिया कंपनी को जो खबर खरीते द्वारा भेजी थी,
कि दामोदर राव को उन्होंने अपना उत्तराधिकारी चुन लिया है।
उसका जवाब एक लंबा अरसा गुजर गया, नहीं आया। राजा बहुत चिंतित हुए। एक दिन उन्होंने अपनी रानी से कहा-“मुझे इसमें कंपनी की कोई चाल मालूम होती है।
आखिर खरीते का जवाब अब तक क्यों नहीं आया।
पोलिटिकल एजेंट से बात हुई। उसके रुख से टालमटोल नजर आता है। मेरा समय लगता है कि अब करीब आ गया है।
खांसी एक मिनट के लिए भी सांस नहीं लेने देती।"
रानी को भी भविष्य की चिंता थी; किंतु वह निरुत्साहित नहीं होती। साहसपूर्वक पति को जवाब देती।
वह कहती-“कंपनी सरकार डाल-डाल चलेगी तो मैं पात-पात डोलूंगी। हमारी योजना में कोई भी हेर-फेर नहीं होगा और न हम इसे सहन ही करेंगे।"
राजा को यह सुनकर प्रसन्नता होती, मगर वे जीवन से निराश हो चुके थे। उन्हें लगता कि मृत्यु उनके सामने खड़ी है।
यह मानव स्वभाव है कि प्रत्येक को मौत से डर लगता है।
राजा भी भगवान् से जिंदगी की भीख मांग रहे थे कि काश वे तब तक जीवित रहते जब तक दामोदर राव युवा नहीं हो जाता। लेकिन होनहार के आगे किसी की नहीं चलती।
आदमी सोचता कुछ है और होता कुछ है। राजा गंगाधर राव कंपनी के जवाब की प्रतीक्षा ही करते रहे। और उनका अंत निकट आ गया।
इक्कीस नवंबर अठारह सौ तिरपन में राजा गंगाधर राव ने शरीर त्याग दिया। रानी छाती पीटकर रह गई। उसने अपना माथा धुन डाला।
उसे अपने महल में अंधेरा ही अंधेरा नजर आने लगा। सुंदर रानी को समझाती।
सुंदर उससे कहती कि राजकुमार का मुंह देखो रानी जी, अब आपकी जिंदगी का वही सहारा है।
काशी अपनी स्वामिनी के साथ बैठकर आंसू बहाती, वह भी अवसर पाकर लक्ष्मीबाई को समझाती।
उससे कहती कि धीरज रखो रानी जी समाई से काम लो। दुःख जब पहाड़ होकर टूटता है तो आदमी उसके नीचे दब जाता है।
यह शोक का समय नहीं; हमें भविष्य को भी देखना है। कंपनी सरकार कहीं कोई नया फरमान न जारी कर दे, मुझे इसका डर है।
रानी सबकी बातें सुनती। वह ठंडी आहे भरती, लंबी सांसें लेती। दामोदर राव की ओर देखती, तो पाती वह पौधा है।
उसे वृक्ष बनने में अभी काफी समय लगेगा। तब तक मुझे बहुत ही सावधान रहने की जरूरत है। अगर कहीं झांसी हाथ से निकल गई तो पति के नाम को बट्टा लगेगा।
दामोदर राव का भविष्य अंधकार में बदल जाएगा।
झांसी की प्रजा और राज्य सभा ने दामोदर राव को अपना युवराज मान लिया था।
वह राज्य का उत्तराधिकारी नियुक्त हुआ। रानी अब भी कंपनी के जवाब की प्रतीक्षा कर रही थी। पोलिटिकल एजेण्ट के पास उसने कई बार अपने आदमी भेजे; लेकिन भी जवाब नहीं मिला।
अठारह वर्ष की छोटी सी उम्र में ही रानी को वैधव्य का दुःख भोगना पड़ा।
वह राजा की विधवा थी और राज्य का उत्तराधिकारी था दामोदर राव; किंतु अभी वह नाबालिब था अतः राज्य का सारा काम रानी स्वयं देखती।
वह न्याय करती, प्रजा का दुःख दूर करने का प्रयत्न करती।
छोटे से लेकर बड़े तक की सभी की बात सुनती। अंग्रेजों की ओर से वह निश्चिंत नहीं थी। उन्हें वह अपना ही नहीं देश का दुश्मन समझती थी।
प्रजा में रानी के राज्य कार्य की सराहना होती।
जिसे देखो वही कहता कि रानी अपनी रिआया के साथ स्नेह पूर्ण व्यवहार करती है।
वह प्रजा के दुःख-दर्द को अपना दुःख समझती। वह अंग्रेजों की दासता के खिलाफ है। अंग्रेजी सेना जो झांसी में रहती है और जिसका खर्च झांसी राज्य से दिया जाता है।
यह रानी को नापसंद है; लेकिन अभी बोलने का अवसर नहीं है इसीलिए वह . चुप है।
समय आने पर रानी चंडी बन जाएगी, यह सभी जानते थे।
रानी को अकारण क्रोध कभी नहीं आता और जब आता तो उसका कारण होता और वह जल्दी नहीं जाता।
यों उसने शांत-चिंत्त पाया था और सरल स्वभाव। उसके पास जो कोई भी जाता वह बिना नहीं रहता।
रानी का व्यक्तित्व इतना आकर्षक था कि अपराधी का साहस नहीं होता कि उसके सामने झूठ बोल प्रभावित हुए जाए। वह अपराध स्वीकार कर लेता और दया की देवी रानी उसे क्षमा कर देती।
झांसी के दो एक नए दुश्मन और थे जो बहुत दिनों से झांसी पर आंख लगाए बैठे थे। इनमें सदाशिव राव होल्कर का नाम सबसे पहले आता।
रानी अपने इस दुश्मन को अच्छी तरह समझती थी। वह उससे पूर्णतया सावधान थी।
रानी पति की मृत्यु के बाद निष्कंटक होकर झांसी में राज्य कर रही थी।
उसने राजगद्दी पर दामोदर राव को बैठा रखा था। शासन सूत्र उसके हाथ में था। वह बड़ी कुशलता से राज्य का संचालन करती।
प्रजा और राज्य सभा में सबको प्रसन्न रखती। वह मृदुभाषिणी थी, इसीलिए प्रत्येक उसे श्रद्धा और आदर की दृष्टि से देखता।
सभी के लिए वह सम्मान की पात्री थी। उसमें देश-भक्ति थी जो उसकी सबसे बड़ी दासी थी।
रानी इक्कीस नवंबर अठारह सौ तिरेपन से लेकर छब्बीस फरवरी अठारह सौ चौव्वन तक। निर्विघ्न राज्य करती रही।
उसके सामने कोई भी बाधा नहीं आई।
हां ईस्ट इंडिया कंपनी से जवाब अब तक नहीं आया था। रानी को उसकी बेसब्री के साथ प्रतीक्षा थी। उसकी चिंता का यह एक मुख्य कारण था।
बिठूर के राज-ज्योतिषी तांता जी एक प्रभावशाली व्यक्ति थे।
निकटवर्ती राज्यों में भी वे सम्मान की दृष्टि से देखे जाते।
उनकी इच्छा थी कि मनूबाई का ब्याह किसी राजघराने में ही हो, क्योंकि वह बालिका विलक्षण बुद्धि की थी।
एक बार किसी कार्यवश वे झांसी गए। वहां के वृद्ध राजा गंगाधर राव के कोई रानी नहीं थी।
वे इस बुढ़ापे में भी ब्याह के इच्छुक थे। तांता जी ने अवसर से लाभ उठाया। उन्होंने राजा गंगाधर राव से मनूबाई का जिक्र किया और बतलाया कि वह लड़की होनहार है।
राजकुमारियों वाले सभी गुण उसमें विद्यमान हैं।
गंगाधर राव ने तांता जी की बात मान ली।
इधर बिठूर आकर राज-ज्योतिषी ने मोरोपन्त तांबे को यह समाचार बतलाया कि झांसी के राजा गंगाधर राव मनूबाई के साथ ब्याह करने को तैयार हैं; यद्यपि वृद्ध राजा के साथ तांबे अपनी पुत्री का ब्याह करने के लिए तैयार नहीं थे; तथापि राज-ज्योतिषी तांता ने उन्हें यह प्रलोभन दिया कि उनकी पुत्री रानी बनकर रहेगी, दामियां उसकी सेवा करेंगी।
यह सौभाग्य प्रत्येक को प्राप्त नहीं होता।
इस तरह मोरोपन्त तांबे मनूबाई का ब्याह झांसी के राजा गंगाधर राव के साथ करने को तैयार हो गए। सन् 1842 में जब मनूबाई सात वर्ष की थी-उसका ब्याह कर दिया गया और वह बिठूर से विदा होकर झांसी के राज-महल में पहुंच गई।
अठारहवीं सदी में पेशवाओं ने झांसी राज्य की नींव डाली।
पेशवा वहां रह कर स्वयं राज-काज नहीं देखते; बल्कि मराठा सूबेदार को यह कार्य सौंप देते थे; लेकिन सन् 1818 में पेशवा राज्य का अन्त हो गया।
बाजीराव द्वितीय के आत्म-समर्पण करने के बाद झांसी पर फिरंगियों का कब्जा हो गया।
जब मनूबाई का ब्याह हुआ तो उस समय पेशवा की ओर से राव गंगाधर झांसी का राज्य-कार्य कर रहे थे।
वे अपने तई स्वतंत्र नहीं थे। ईस्ट-इण्डिया कंपनी के साथ उनकी संधि थी-जिसके फलस्वरूप झांसी में अंग्रेजी सेना राज्य के खर्च से रखी हुई थी।
राजा को ही नहीं, जनता को भी यह बात पसंद नहीं थी, लेकिन सभी विवश थे, इसीलिए मौन थे; क्योंकि ईस्ट इंडिया कंपनी का प्रभुत्व सारे भारत परठा रहा था।
मनूबाई अभी बालिग ही थी; किंतु उसने रनिवास में उसी परंपरा का पालन किया, जो रानियां करती हैं। उसकी सेवा के लिए सुंदर-सुंदर और काशी से तीन दासियां रखी गईं। वह भी अब मनूबाई नहीं रही।
वह झांसी की रानी थी और अब लक्ष्मीबाई के नाम से पुकारी जाने लगी।
राजा गंगाधर राव को अपनी रानी लक्ष्मीबाई पर गर्व था।
उन्हें अच्छी तरह याद था कि लग्न-मण्डप के नीचे मनूबाई ने पंडित से कहा था कि 'पक्की-गांठ बांधना पंडित जी, कहीं न जाय।" वे जानते थे कि लक्ष्मीबाई में विलक्षण प्रतिभा है और वह दिन-प्रतिदिन विकास की ओर अग्रसर होती जा रही है। वे देखते कि लक्ष्मीबाई जब उनके साथ शतरंज खेलने बैठती तो घंटों बीत जाते और वह अपनी बाजी मात नहीं होने देती।
घुड़सवारी में वह निपुण थी ही, इसके अतिरिक्त उसे शिकार का भी शौक था।
वह राज-काज में भी अपने पति का हाथ बंटाती, अपनी तीक्ष्ण-बुद्धि का परिचय एवं परामर्श देती। इस तरह राजा उससे प्रसन्न ही नहीं पूर्णतया प्रभावित थे।
गंगाधर राव मनूबाई को रानी कहकर पुकारते। वे प्यार से उसे लक्ष्मीबाई भी कहा करते।
वे रानी की दासियों को हमेशा टोका करते कि-'देखो, लक्ष्मीबाई का बहुत ध्यान रखो, उसे किसी तरह का भी कष्ट न हो, उसकी हर जरूरत पूरी की जाए।
वह तुम्हारी रानी है और तुम्हारी ही नहीं-इस पूरे झांसी राज्य की।" इसीलिए काशी, सुन्दर और मुन्दर हमेशा सजग रहतीं, वे रानी को हाथों-हाथ लिये रहतीं।
दासियों को इस बात की बहुत बड़ी प्रसन्नता थी कि उनकी रानी उनके साथ सखी-सहेलियों जैसा व्यवहार करती है, वह रानी और दासी का भेद नहीं मानती।
यही कारण था कि सुन्दर उस पर जान देती, मुन्दर उसकी बलायें लेती नहीं अघाती और काशी उसके पीछे-पीछे घूमती। रानी यह जानती थी उसको मन बहलाने के लिए तीन सहेलियां मिली हैं।
वह क्या करती-एक नया कौतुक। गंगाधर राव भी यह देखकर हंस देते। वे देखते कि घुड़सवारी के लिए एक घोड़ा नहीं लक्ष्मीबाई ने चार घोड़े मंगाये हैं। तीनों दासियों के साथ रानी घोड़े की सवारी करती। वह अपनी दासियों को तलवार चलाना भी सिखलाती।
व्यायाम में भी लक्ष्मीबाई की विशेष रुचि थी। वह दौड़ लगाती, तीनों दासियों के साथ। छलांग मारती, ऊंचे से कूदती और कूद पड़ती भरी नदी में और पलक मारते ही उसे तैर कर पार कर लेती।
सुंदर और मुंदर को यह लग रहा था कि उनके जीवन का एक नया अध्याय शुरू हुआ है। रानी लक्ष्मीबाई उनके लिए एक बहुत बड़ी सौगात बनकर आई है।
और, काशी का रंग-ढंग निराला था। वह ऐसा करती कि जब रानी सो जाती तो उस पर चंवर डुलाते-डुलाते उसके पास ही बैठ जाती।
उस समय सुंदर और मुंदर रानी के चरण दबातीं, तभी काशी अपनी कांख से एक छोटी सी डिबिया निकालती। वह रानी की गोरी ठुड्ढी पर काजल का छोटा सा तिल बना देती।
लक्ष्मीबाई जब सोकर उठती और आईने में अपना मुंह देखती तो तीनों दासियों को मीठी डांट बताती कि यह किसकी शरारत है ?
तभी काशी दोनों हाथ बांधकर उसके सामने खड़ी हो जाती और लिहाज़ के साथ दया की भीख मांगती हुई कहती कि कुसूर मुआफ करें सरकार! मैंने सोचा कि महारानी के गोरे मुंह पर काला तिल जरूर होना चाहिए।
आप नहीं जानतीं हुजूर, पत्थर को भी नज़र लग जाती है। अगर यह गलत हो, तो लौंड़ी सामने खड़ी है, उसका सिर कलम करवा दो।
तब समां बहुत ही निराला हो जाता।
लक्ष्मीबाई काशी को गले से लगा लेती वह हंसने लगती और तभी देखा जाता कि सुंदर और मुंदर की आंखों में भी खुशी के आंसू छलक आये हैं।
पता नहीं, वे रानी के प्रति सम्मान के सूचक होते अथवा इसके प्रतीक, कि उनकी महारानी में कितना अधिक सौहार्द्र है।
जिन भारतीय सैनिकों ने झांसी के किले में वहां स्थित अंग्रेजों का सफाया कर दिया था,
वे एक दिन रानी के पास आए और उनसे विनम्र प्रार्थना की कि रानी उनका साथ दे।
उसकी प्रेरणा से उन्हें नया बल मिलेगा। उन सैनिकों ने रानी से यह भी कहा कि वे विद्रोह में शामिल होने के लिए राजधानी देहली जाएंगे।
वहां जाकर अंग्रेजों से लोहा लेंगे। उनके दात खट्टे करेंगे।
पहले तो रानी ने उन्हें समझाया और झांसी में ही रहने की सलाह दी। लेकिन फिर वह दूसरी ओर मुड़ गयी। उसमें उन्हें देहली जाने की।
अनुमति दे दी। सैनिक खाली हाथ थे। उनके पास एक पैसा भी नहीं था। यह देख रानी ने लगभग एक लाख रुपये के जेवर उन सैनिकों के सुपर्द कर दिए कि यह पूंजी उनके रास्ते के खर्च में काम आएगी।
इससे सैनिकों का उत्साह चौगुना बढ़ गया। वे सब छाती ठोककर देहली की ओर चल पड़े।
रानी ने जब उस काफिले को कूच करते देखा तो उसे लगा कि कुछ दिन बाद ही इसी झांसी में युद्ध की आग बरसेगी।
एक ओर ईस्ट इंडिया कंपनी होगी और दूसरी ओर पूरी झांसी। खून की नदियां बहेंगी। लोथों पर लोथें गिरेंगी। आजादी सस्ती नहीं होती उसके भाल में खून का टीका लगता है।
रानी अपने सखी समाज के प्रशिक्षण में तनिक भी कमी नहीं होने देती। उनकी छोटी सी सेना रिहर्सल में रोज झांसी का मोर्चा बनाती।
उसे दुश्मन के हाथों से छीना जाता।
रानी सैन्य संचालन में बहुत ही कुशल थी।
उसे अपने पर भरोसा था, एक आत्मविश्वास।
वह देख रही थी कि कोई भी भारतीय ऐसा नहीं। जिसके हृदय में अंग्रेजों के लिए स्थान हो। गद्दार और देशद्रोहियों की बात और थी।
रानी किले में पहुंची।
उसने वहां अपना अधिकार कर लिया।
उसने शासन-सूत्र अपने हाथ में ले लिया। जिस समय किले में उसका दरबार लगा और वह गद्दी पर जाकर बैठी तो सिपाहियों ने नारे लगाए। खल्क खुदा का, मुल्क बादशाह का अमल महारानी झांसी का।
झांसी के बच्चे-बच्चे को प्रसन्नता थी कि उनके राजय में उनकी प्रिय रानी की सत्ता फिर हो गयी है।
लोग आपस में संगठित हो रहे थे। वे एकता के सूत्र में बंधने के इच्छुक थे। क्या हिंदू क्या मुसलमान, सभी अंग्रेजों से देश को बचाना चाहते थे।
राज्य की बागडोर हाथ में लेते हुए रानी ने सबसे पहले ध्यान अपने तोपखाने पर दिया।
बारूदखाने में बारूद की कमी नहीं थी। प्रशिक्षण जारी था। पुरुष ही नहीं महिलाएं भी जो किले में थीं वे अस्त्र-शस्त्र विद्या में निपुण थीं। रानी जानती थी कि कंपनी सरकार के पास जब यह खबर पहुंचेगी कि झांसी पर हुकूमत मेरी
हो गई है और वहां के किले में तैनात सभी अंग्रेज अफसर, भारतीय सिपाहियों द्वारा यमलोक पहुंचा दिए गए हैं तो आफत आएगी।
एक बार झांसी पर अंग्रेजों की चढ़ाई बड़े जोर से होगी। सुना है अंग्रेज बड़े जालिम हैं।
वे तोप के सामने खड़ा करके गोले से उड़ा देते हैं। वे जिंदा ही जला देते और फांसी पर लटका देते हैं। वे बड़े निर्दयी हैं, उन्हें किसी पर भी दया नहीं आती।
रानी ने इसीलिए युद्ध की सारी तैयारियां करनी आरंभ कर दीं। तेजी से हथियार बनने लगे।
रसद भी किले के अंदर इकट्ठी की जाने लगी। प्रबंध यह किया जा रहा था कि अगर अंग्रेजी सेना ने किले को चारों तरफ से घेर लिया तो किले के अंदर से ही ईंट का जवाब पत्थर से दिया जाएगा। कब तक घेरा डाले रहेंगे अंग्रेज! एक बार वह हार मानकर चले जाएंगे।
रानी ने बिठूर सहायता के लिए नानाराव को पत्र लिखा था।
इसके अलावा उसने दो एक पड़ोसी राज्यों से भी सहयोग की अपील की थी।
उसे आशा थी कि बिठूर से उसके लिए सैनिक सहायता जरूर आएगी।
इसीलिए वह प्रतीक्षा कर रही थी कि अवसर अब निकट है। अंग्रेजी सरकार कभी भी उस पर जुल्म बढ़ा सकती है।
रानी तनिक भी गाफिल नहीं थी। उसे उठते-बैठते, सोते-जागते और चलते-फिरते देश की चिंता थी।
उसे लग रहा था पूरा समूचा देश एक दिन अंग्रेजों के अधीन हो जाएगा क्योंकि इन फिरंगियों के पैर यहां जहां देखो थे वहीं जम रहे हैं। वे पक्के जादूगर हैं, जादूगर। सब्जबाग दिखलाकर वह आदमी की मन की बात पूछ लेते हैं।
रानी ने किले में युद्ध संबंधी सारी व्यवस्था कर रखी थी। वह एक क्षण भी व्यर्थ नहीं बैठती। कुछ न कुछ करती ही रहती।
रानी लक्ष्मीबाई अपने को अकेली नहीं समझती। उसकी धारणा थी कि सुंदर और मुंदर उसकी दोनों भुजाएं हैं, और काशी है उसके कदम। जिसके सम्मुख मंजिल स्वयं आकर खड़ी हो जाती रानी दामोदर राव पर जान देती।
उसकी इतनी अधिक देखरेख रखती कि एक क्षण भी उसे अपने से पृथक् नहीं करती। वह जानती थी कि दामोदर राव का जीवन कितना मूल्यवान है।
यदि वह न रहा तो कंपनी सरकार वह छः लाख रुपया ब्याज सहित कभी नहीं लौटाएगी जो ब्याज सहित दामोदर राव को बालिग होने पर देने के लिए कहा गया था।
रानी अंग्रेजों की कूटनीति को भलीभांति समझती थी।
वह कभी भी उनकी बातों में नहीं आती। करती भी वही जो उसके मन में आता।
वह अपनी योजना में भूत सी जुटी थी। उसे पूरी-पूरी आशंका थी कि कंपनी सरकार चुप नहीं बैठेगी।
वह झांसी के किले पर हमला करेगी, सैनिकों को कुचल देगी। उसमें बहुत बड़ी ताकत है।
रानी आजादी की लड़ाई के लिए प्रत्येक का सहयोग चाहती थी। और वह सहयोग उसे लगभग अस्सी प्रतिशत प्राप्त था।
उसका अपना व्यक्तित्व निराला था। जो भी एक बार उसे देख लेता प्रभावित हुए बिना नहीं रहता।
राजा गंगाधर राव और लक्ष्मीबाई अपनी योजना में सफल हो गए।
उन्हें एक बालक मिल गया जो उनके निकट संपर्क में था।
यह था वासुदेवराव नेवाल का का लड़का। राजा ने उसे गोद लेना दृढ़ निश्चय कर लिया।
बात पक्की हो गई। मां-बाप ने हंसकर अपने पांच वर्षीय पुत्र आनंदराव को गंगाधर तथा लक्ष्मीबाई के हाथों में सौंप दिया। शास्त्रीय विधि से गोद लेने की रस्म पूरी की जाने की योजना बनाई जाने लगी।
रानी को बड़ी प्रसन्नता हुई। उसके सखी-समाज में भी हर्ष की लहर दौड़ गई। लड़के का नाम आनंद राव था।
लक्ष्मीबाई ने उसका नाम दामोदर गंगाधर राव रखा क्योंकि उसी नाम से उसे उत्तराधिकारी नियुक्त होना था।
दामोदर गंगाधर राव को गोद लेने की रस्म खूब धूम-धाम से मनाई गई। शास्त्रीय ढंग से उस प्रथा का पूरा-पूरा पालन हुआ। समारोह कुछ दिन चलता रहा। नगर में खूब जश्न मनाया गया। जिसे देखो वही खुशी की लहर में बहा चला जा रहा था।
इस अवसर पर झांसी के संभ्रांत नागरिक, गण्यमान प्रमुख व्यक्ति, ईस्ट इंडिया कंपनी का पोलिटिकल एजेण्ट तथा अंग्रेज उच्च अधिकारी मौजूद थे। सबने राजा गंगाधर राव की सराहना की।
लक्ष्मीबाई का सम्मान स्वीकार किया और झांसी के भावी उत्तराधिकारी युवराज को आशीर्वाद दिया। जनता में घर-घर राजा-रानी की चर्चा थी।
राजा ने संतोष की सांस ली। उनका शरीर जर्जर हो चला था।
खांसी और ज्वर उन्हें कभी मुक्त नहीं करता। वे रोग से लड़ रहे थे और वह विजयी बना था। राज-वैद्य दिन-रात सेवा में उपस्थित रहते; किंतु फिर भी राजा गंगाधर राव स्वास्थ्य लाभ नहीं कर पाते। वे दुर्बल होते जा रहे थे और अब बिल्कुल क्षीण-काय हो रहे थे।
अपनी ढलती उम्र और गिरती अवस्था का राजा को अच्छी तरह बोध था। इसीलिए उन्होंने ईस्ट इंडिया कंपनी सरकार को लिखित भेजा कि बालक दामोदर गंगाधर राव को मैंने, शास्त्र की रीति से गोद ले लिया है।
मेरे मरने के बाद उसे युवराज का पद प्राप्त होगा। झांसी का उत्तराधिकारी वही बनेगा। इस वसीयत के साथ ही साथ राजा ने कंपनी सरकार को यह भी लिखा था कि लक्ष्मीबाई अपनी जिंदगी भर झांसी पर राज्य करेगी। स्वामिनी वही रहेगी और राज-काज भी वही देखेगी।
राजा ईस्ट इंडिया कंपनी के उत्तर की प्रतीक्षा करने लगे। पोलिटिकल एजेण्ट के द्वारा जवाब आने को था। उसमें विलंब होती चली गई। राजा रास्ता ही देखते रहे।
अब राजा का स्वास्थ्य बहुत गिर गया था। वे ज्वर-पीड़ित
रहते। खांसी भी उन्हें खूब आती। वे रानी को अपनी आंखों से ओझल नहीं होने देते। उपचार निरंतर चल रहा था।
अच्छी से अच्छी गुणकारी औषधियां दी जा रही थीं; लेकिन बुढ़ापे ने जीत लिया था राजा को और रोग उस बुढ़ापे का साथ दे रहा था। अब वे उतने दुखी नहीं थे।
हां, इस बात का अंदेशा उन्हें जरूर था कि कहीं उनकी मृत्यु हो गई और कंपनी सरकार का जवाब न आ पाया तो हो सकता है कि अंग्रेज बदल जाएं। वे दामोदर राव को मेरा उत्तराधिकारी न मानें। अभी मैं मोजूद हूं, मेरा कुछ लिहाज करेंगे।
राजा कभी-कभी अपनी यह दुश्चिंता अपनी रानी पर भी प्रकट करते। आशा और भरोसे को लेकर बात टल जाती।
दिन पर दिन बीतते जा रहे थे मगर ईस्ट इंडिया कंपनी से राजा के पास कोई जवाब नहीं आया।
राजा के गिरते हुए स्वास्थ्य को देखकर रानी दिन-रात चिंतित रहती। वह पति-सेवा को बहुत महत्त्व देती। इसीलिए आजकल सब काम छोड़कर राजा की सेवा में उपस्थित रहती। वह राजा का मन बहलाने का सतत प्रयास करती।
वह उन्हें गीता, रामायण और उपनिषद् पढ़कर सुनाती। कभी-कभी दंपती के बीच धर्म-चर्चा चलने लगती। कहने का अर्थ यह कि रानी राजा को ऊबने नहीं देती। उनका मन बहलाए रहती।
बालक दामोदर राव से रानी लक्ष्मीबाई को विशेष स्नेह था। वह उसे उमंग में आ गोद में भर लेती तो बालक को भी अनुभव होता कि उसकी मां यही है। वह उसके सामने रोता, मचलता, ज़िद करता। रानी उसके नाज़ उठाती, प्यार करती, दुलार से
डांटती और कभी-कभी मीठे क्रोध में आ उसके कान भी गरम कर देती।
राजा मां-बेटे का यह मधुर व्यापार देखकर फूले नहीं समाते। उन्हें भविष्य पर भरोसा होने लगता कि ये दोनों मां-बेटा मिलकर झांसी को नया जीवन देंगे। रानी के अंदर क्रांति की चिनगारी छिपी है।
चिनगारी कभी भी शोला बनकर भड़क सकती है, यह मैं जानता हूं। बालक दामोदर राव रानी की देख-रेख में बड़ा होगा। शिक्षा-दीक्षा भी उसी के द्वारा सम्पन्न होगी। फिर संदेह का प्रश्न ही नहीं उठता।
निश्चय है, कि वह एक दिन योद्धा बनेगा। रानी अपने को चरितार्थ कर रही थी। राजा की अस्वस्थता के कारण वह राज-काज भी देखती। उसमें उसे बहुत समय देना पड़ता।
इसके अतिरिक्त पति की देख-रेख भी बहुत आवश्यक थी; लेकिन फिर भी इन सबसे समय बचाकर वह दामोदर राव पर ध्यान देती। उसकी प्रगति में तनिक भी बाधा नहीं पड़ने देती।
उसका अध्ययन राज-पुरोहित द्वारा सम्पन्न हो रहा था। शस्त्र चलाने की शिक्षा रानी उसे स्वयं देती। उसने उसे घोड़े की सवारी, तैराकी आदि भी सिखलाया।
वह उसके समक्ष सबसे पहिले मां थी फिर झांसी की रानी लक्ष्मीबाई। तत्पश्चात् शिक्षिका थी, गुरुआनी। वह वीर-बाला थी, भारतीय वीरांगना। उसमें गुणों की खान थी, वह मानवी नहीं देवी थी।
समय का पहिया अपनी पूरी रफ्तार से घूम रहा था। राजा गंगाधर राव का स्वास्थ्य बहुत ही बिगड़ गया था। जिंदगी बिदा के क्षणगिन रही थी। उधर ईस्ट इंडिया कंपनी का जवाब अभी तक नहीं आया था। दामोदर राव की शिक्षा-दीक्षा जोरों से चल रही थी।
रानी कभी सुनती कि अंग्रेजों ने किसी गांव में आग लगा दी। बाजार लूट ली। लोगों को फांसी पर लटका दिया। ये अत्याचार की कहानियां उसके कानों में तेजाब की बूंदों की भांति गिरतीं।
खून में जोश आ जाता और वह जोश से भर जाती। यद्यपि परिस्थितियां अपना रंग दिखला रही थीं, लेकिन फिर भी रानी के किसी कार्य में बाधा नहीं पड़ती। वह प्रगति की ओर अग्रसर थी। वह अपना एक क्षण भी व्यर्थ नहीं गंवाती।
जिन भारतीय सैनिकों ने झांसी के किले में वहां स्थित अंग्रेजों का सफाया कर दिया था,
वे एक दिन रानी के पास आए और उनसे विनम्र प्रार्थना की कि रानी उनका साथ दे।
उसकी प्रेरणा से उन्हें नया बल मिलेगा। उन सैनिकों ने रानी से यह भी कहा कि वे विद्रोह में शामिल होने के लिए राजधानी देहली जाएंगे।
वहां जाकर अंग्रेजों से लोहा लेंगे। उनके दात खट्टे करेंगे।
पहले तो रानी ने उन्हें समझाया और झांसी में ही रहने की सलाह दी। लेकिन फिर वह दूसरी ओर मुड़ गयी। उसमें उन्हें देहली जाने की।
अनुमति दे दी। सैनिक खाली हाथ थे। उनके पास एक पैसा भी नहीं था। यह देख रानी ने लगभग एक लाख रुपये के जेवर उन सैनिकों के सुपर्द कर दिए कि यह पूंजी उनके रास्ते के खर्च में काम आएगी।
इससे सैनिकों का उत्साह चौगुना बढ़ गया। वे सब छाती ठोककर देहली की ओर चल पड़े।
रानी ने जब उस काफिले को कूच करते देखा तो उसे लगा कि कुछ दिन बाद ही इसी झांसी में युद्ध की आग बरसेगी।
एक ओर ईस्ट इंडिया कंपनी होगी और दूसरी ओर पूरी झांसी। खून की नदियां बहेंगी। लोथों पर लोथें गिरेंगी। आजादी सस्ती नहीं होती उसके भाल में खून का टीका लगता है।
रानी अपने सखी समाज के प्रशिक्षण में तनिक भी कमी नहीं होने देती। उनकी छोटी सी सेना रिहर्सल में रोज झांसी का मोर्चा बनाती।
उसे दुश्मन के हाथों से छीना जाता।
रानी सैन्य संचालन में बहुत ही कुशल थी।
उसे अपने पर भरोसा था, एक आत्मविश्वास।
वह देख रही थी कि कोई भी भारतीय ऐसा नहीं। जिसके हृदय में अंग्रेजों के लिए स्थान हो। गद्दार और देशद्रोहियों की बात और थी।
रानी किले में पहुंची।
उसने वहां अपना अधिकार कर लिया।
उसने शासन-सूत्र अपने हाथ में ले लिया। जिस समय किले में उसका दरबार लगा और वह गद्दी पर जाकर बैठी तो सिपाहियों ने नारे लगाए। खल्क खुदा का, मुल्क बादशाह का अमल महारानी झांसी का।
झांसी के बच्चे-बच्चे को प्रसन्नता थी कि उनके राजय में उनकी प्रिय रानी की सत्ता फिर हो गयी है।
लोग आपस में संगठित हो रहे थे। वे एकता के सूत्र में बंधने के इच्छुक थे। क्या हिंदू क्या मुसलमान, सभी अंग्रेजों से देश को बचाना चाहते थे।
राज्य की बागडोर हाथ में लेते हुए रानी ने सबसे पहले ध्यान अपने तोपखाने पर दिया।
बारूदखाने में बारूद की कमी नहीं थी। प्रशिक्षण जारी था। पुरुष ही नहीं महिलाएं भी जो किले में थीं वे अस्त्र-शस्त्र विद्या में निपुण थीं। रानी जानती थी कि कंपनी सरकार के पास जब यह खबर पहुंचेगी कि झांसी पर हुकूमत मेरी
हो गई है और वहां के किले में तैनात सभी अंग्रेज अफसर, भारतीय सिपाहियों द्वारा यमलोक पहुंचा दिए गए हैं तो आफत आएगी।
एक बार झांसी पर अंग्रेजों की चढ़ाई बड़े जोर से होगी। सुना है अंग्रेज बड़े जालिम हैं।
वे तोप के सामने खड़ा करके गोले से उड़ा देते हैं। वे जिंदा ही जला देते और फांसी पर लटका देते हैं। वे बड़े निर्दयी हैं, उन्हें किसी पर भी दया नहीं आती।
रानी ने इसीलिए युद्ध की सारी तैयारियां करनी आरंभ कर दीं। तेजी से हथियार बनने लगे।
रसद भी किले के अंदर इकट्ठी की जाने लगी। प्रबंध यह किया जा रहा था कि अगर अंग्रेजी सेना ने किले को चारों तरफ से घेर लिया तो किले के अंदर से ही ईंट का जवाब पत्थर से दिया जाएगा। कब तक घेरा डाले रहेंगे अंग्रेज! एक बार वह हार मानकर चले जाएंगे।
रानी ने बिठूर सहायता के लिए नानाराव को पत्र लिखा था।
इसके अलावा उसने दो एक पड़ोसी राज्यों से भी सहयोग की अपील की थी।
उसे आशा थी कि बिठूर से उसके लिए सैनिक सहायता जरूर आएगी।
इसीलिए वह प्रतीक्षा कर रही थी कि अवसर अब निकट है। अंग्रेजी सरकार कभी भी उस पर जुल्म बढ़ा सकती है।
रानी तनिक भी गाफिल नहीं थी। उसे उठते-बैठते, सोते-जागते और चलते-फिरते देश की चिंता थी।
उसे लग रहा था पूरा समूचा देश एक दिन अंग्रेजों के अधीन हो जाएगा क्योंकि इन फिरंगियों के पैर यहां जहां देखो थे वहीं जम रहे हैं। वे पक्के जादूगर हैं, जादूगर। सब्जबाग दिखलाकर वह आदमी की मन की बात पूछ लेते हैं।
रानी ने किले में युद्ध संबंधी सारी व्यवस्था कर रखी थी। वह एक क्षण भी व्यर्थ नहीं बैठती। कुछ न कुछ करती ही रहती।
रानी लक्ष्मीबाई अपने को अकेली नहीं समझती। उसकी धारणा थी कि सुंदर और मुंदर उसकी दोनों भुजाएं हैं, और काशी है उसके कदम। जिसके सम्मुख मंजिल स्वयं आकर खड़ी हो जाती रानी दामोदर राव पर जान देती।
उसकी इतनी अधिक देखरेख रखती कि एक क्षण भी उसे अपने से पृथक् नहीं करती। वह जानती थी कि दामोदर राव का जीवन कितना मूल्यवान है।
यदि वह न रहा तो कंपनी सरकार वह छः लाख रुपया ब्याज सहित कभी नहीं लौटाएगी जो ब्याज सहित दामोदर राव को बालिग होने पर देने के लिए कहा गया था।
रानी अंग्रेजों की कूटनीति को भलीभांति समझती थी।
वह कभी भी उनकी बातों में नहीं आती। करती भी वही जो उसके मन में आता।
वह अपनी योजना में भूत सी जुटी थी। उसे पूरी-पूरी आशंका थी कि कंपनी सरकार चुप नहीं बैठेगी।
वह झांसी के किले पर हमला करेगी, सैनिकों को कुचल देगी। उसमें बहुत बड़ी ताकत है।
रानी आजादी की लड़ाई के लिए प्रत्येक का सहयोग चाहती थी। और वह सहयोग उसे लगभग अस्सी प्रतिशत प्राप्त था।
उसका अपना व्यक्तित्व निराला था। जो भी एक बार उसे देख लेता प्रभावित हुए बिना नहीं रहता।
महारानी लक्ष्मीबाई