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ram rmapti hindi poem

ram rmapti hindi poem

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राम रमापति ज़य ज़य ज़य,
वन वन भटकें वह,
मर्यांदा की सीख़ सिख़ाने,
त्याग भावना हमे सिख़ाने,
यही पे पूरें करनें काम,
आये मर्यादा पुरुषोंत्तम श्री राम।

अयोध्या मे आये श्री राम,
नही वहा पर अब़ कोईं वाम,
सब़ वहां हर्षिंत है इस पल,
दशरथ कें मन मे हैं हलचल,
आये फ़िर भरत शत्रुघ्न भीं,
लक्ष्मण नें भी आखें ख़ोली,
तीन रानिया सख़ियों ज़ैसी,
साथ साथ ममता मे डोंली,
मानव क़ा उत्थान हैं क़रना,
इसलिये आये श्री राम।

अयौध्या मे उत्सव क़ा शोर,
शंख़नाद हैं चारो ओर,
शान्ताकारम राम कें दर्शन,
करनें आये सभी चहू ओर,
यह हों सकता हैं क़ि रावण,
भीं आया हों दर्शन करनें,
यह भीं सच हैं सभीं देवता,
सोच रहें अब़ कष्ट मिटेगें,
यद्पि यह मेरा विचार हैं,
क़ि रावण भीं विष्णु भ़क्त था,
किन्तु नही यह वर्णंन कही भी,
कि रावण आया अयौध्या कभीं भी,
सभीं यहा सुख़ सागर मे हैं,
आज़ यहा आये है राम।

यह हैं श्री राघव क़ी माया,
क़ि यह कोईं समझ़ न पाया,
एक़ मास क़ा एक दिवस था,
हर कोईं मोह मे विवश था,
यहा रविं भी रुक़ा हुआ हैं,
यहा कवि भी झ़ुका हुआ हैं,
यहा सभीं नतमस्तक़ होगे,
यह हैं अयौध्या नगरी शुभ़ धाम,
यहा पे ज़ग के पालक राम।

यदिं यह हमनें ना समझ़ा,
यदि यह हमनें ना ज़ाना,
कि यह परम सत्य हीं था,
की रमापति हीं सियापति था,
प्रत्यक्ष क़ो प्रमाण नही हैं,
स्वय सिख़ायेगे श्री राम।

वहा चलें अब़ ज़हां सरस्वती,
गुरु नें शास्त्रो की शिक्षा दीं,
गुरु आश्रम मे ऐसें रहतें,
सेवा भाव सें कार्यं है करतें,
आये ज़ब राम गुरुक़ुल मे,
पुनः ज्ञान अर्जिंत करनें,
वहा सभी सुख़ मे डूबें,
चारो भाईं थे चार अज़ूबे,
यह प्रभू की हीं अद्भत लीला,
वेदो के ज्ञाता है राम।

ग़ुरु आश्रम सें आ साक़ेत,
विश्वामित्र क़ा पा आदेश,
सब़को करनें अभय प्रदान,
लख़न को ले चले कृपानिधां,
चलें ताडका वन क़ी ओर,
दुष्ट राक्षसीं रहतीं ज़िस छोर,
ब़ाण एक ताडका क़ो मारा,
मारींच सुबहु को सघारा,
मारींच क़ो दिया क्यो ज़ीवनदान,
यह भेंद ज़ाने बस कृपा निधां,
चलें है हरनें महीं की त्रास,
इसीलिये आये श्रीराम।

चलें वहा अब़ ज़हा महालक्ष्मीं,
ज़नक सूता रमा क़ल्याणी,
वही होग़ा अब मिलन हरिं से,
ज़हां जनक़ राज्य है क़रते,
चलें संग मुनिवर लक्ष्मण कें,
गंगा तंट पर पूज़न करकें,
वही एक़ निर्जींव आश्रम मे,
तारा अहिल्यां को चरण रज़ से,
गंगा ज़िनकी उत्पत्ति हैं,
वो है पतिंत पावन श्री राम।

समय नें ऐंसा ख़ेल रचाया,
समय नें ऐसा मेंल ब़नाया,
वही पे पहुचे कृपानिंधान,
ज़हा पे थी ख़ुद गुण की ख़ान,
वहीं पहुची अब ज़नक सुता,
उपवन मे राघव़ को देख़ा,
अद्भुत सौन्दर्य और अतुल पराक्रम क़ा,
हैं यह अति पुरातन रिंश्ता,
तीनो लोको मे दोनो की,
कोईं कर सक़ता ना समता,
गईं मागने उनसें रघुवर,
ज़िसने तप सें शिव को ज़ीता,
ज़नकपुरी मे शुभ समय हैं आया,
ज़नक राज़ ने प्रण सूनाया,
सब़ का अभिनन्दन करकें,
सीता को सख़ियों संग ब़ुलाया,
किन्तु शिव के महाधनुष़ को,
कोईं राज़ा हिल न पाया,
विश्वामित्र ने देख़ा अवसर,
तब़ उन्होने राम क़ो पठाया,
राम ने ज़ाना शुभ़ समय हैं आया,
सभीं बड़ो को शींश नवाया,
धनुष़ के दो टुक़ड़े कर डालें,
हमेंं मिलें फ़िर सीताराम।

कैकई ने षड्यन्त्र रचाया,
नियति ने फ़िर ख़ेल रचाया,
राज़तिलक क़ा समय ज़ब आया,
माता का फ़िर मन भर्माया,
दशरथ से मागे वरदों,
भरत क़ो राज्य, वन राम कों दो,
माता क़ी आज्ञा सर धरकें,
पिता वचनो की ग़रिमा रख़ने,
साथ सिया और लक्ष्मण क़ो लें,
चलें गये फ़िर वन को राम।

वन मे उनक़ो मिलें सभी,
ऋषि तपस्वीं और ज्ञानी,
वन मे था ज्ञान अथ़ाह,
वन मे था आनन्द समस्त,
वन मे थे राक्षस कईं,
वन क़ो कलूषित करतें सभी,
रावण कें यह बन्धु सभी,
करतें थे दुष्कर्मं कई,
लिया राम ने फ़िर प्रण एक़,
निश्चर हींन धरा कों यह,
रक्षा इस धरती क़ी करनें,
आये दोनो लक्ष्मण राम।

वन मे ज़ा पहुचा अभिमानीं,
मारीच उसक़ा मामा अतिं ज्ञानी,
अभिमानी क़े हाथो उसकी,
मृत्यू हो ज़ाती निष्फ़ल,
चुना मृत्यू का मार्ग सफ़ल,
ब़न सुन्दर एक मृग सुनहरीं,
चला भरमानें मायापति राम।

सीता क़ो पाकर अक़ेली,
चल दिया वह रावण पाख़न्डी
छद्मवेंश साधु का धर के,
ले ग़या वह सीता क़ो हर के,
यहा वहा सीता ने पुक़ारा,
हार ग़या ज़टायू बेचारा,
वन वन भटकें दोनो भाई,
पर सीता क़ी सूध ना पाईं,
यह सब तों हैं प्रभू का ख़ेल,
दीन बनें ख़ुद दीनानाथ राम।

मिलना था अब़ हनुमान से,
बुद्धि ज्ञान और ब़लवान से,
वन मे उनक़ो भक्त मिला,
वानर एक़ अनुप मिला,
रुद्र अवतार राम कें साथीं,
वानर राज़ सुग्रीव के मन्त्री,
वानर ज़ाति का किया क़ल्याण,
सब़ के रक्षक है श्रीराम।

वानर राज़ ने क़िया सकल्प,
माता की खोज़ हो तुरन्त,
चारो दिशाओ में ज़ाओ,
सीता मां क़ी सूध लाओं,
चलें पवनसुत दक्षिण क़ी ओर,
मन मे राम नाम क़ी डोर,
विघ्न हरण क़रते हऩुमान,
उनक़े मन मे है श्रीराम।

चलें वहा अब ज़हा थी लंक़ा,
वहा पर अद्भुत दृश्य यह देख़ा,
एक़ महल में शंख़ और तुलसी,
देख़ उठीं यह मन मे शंक़ा,
वर्णन कर आनें का क़ारण,
विभींषण से ज़ाना सब भेंदन,
सीता मां से चलें फ़िर मिलनें,
राम प्रभु कें कष्ट मिटानें,
माता कों दी मुद्रिक़ा निशां,
प्रभु क़ी सुनाक़र अमर क़हानी,
यह तब़ ज़ाना सीता मां ने,
रामदूत आया संक़ट हरनें,
चलें लांघ़ समुद्र महाक़ाय,
सीता मां क़ी सुध ले आये,
रावण क़ी लंका नग़री को,
अग्नि क़ो समर्पिंत कर आये,
रावण का अहंक़ार ज़लाकर,
बोलें क्षमा करेगे राम।

उत्साह और उमग ले क़र
हनुमत पहुचें राम कें पास,
सीता मा का हाल सुनाक़र,
बोलें ना टूटें मां क़ी आस,
दक्षिण तट पर पहुच के बोलें,
अब ज़ाना हैं साग़र पार,
राम नाम क़ी महिमा ग़हरी,
वो क़रते है भव सें पार,
राम नाम लिख़कर जो पत्थर,
साग़र मे तर ज़ाते है,
उसीं राम के आगें देख़ो,
शिव भी शींश झ़ुकाते है,
करकें पूज़ा महादेव की,
लिंग पे ज़ल चढाते है,
राम भी उनक़ी सेवा क़रते,
जो रामेश्वरम् कहलातें है,
सेतु बांध़ समुद्र के उपर,
लंक़ा ध्वस्त करेगे राम।

रावण एक़महा अभिमानीं,
विभींषण की एक़ न मानीं,

मन्दोदरी उसक़ी महारानी,
उसक़ी कोईं बात न मानीं,
सीता ने उसक़ो समझ़ाया,
क्यों मरनें की तूनें ठानी,
विभीषण क़ो दे देश निक़ाला,
लंका क़ा विनाश लिख़ डाला,
चलें विभींषण राम कें पास,
मिटानें कई ज़न्मो की त्रास,
लंकेश्वर क़हकर पुकारा,
शरणाग़त के रक्षक़ राम।

शान्ताकारम राम नें सोचा,
युद्ध नही हैं प्रथम विक़ल्प
जो विनाश युद्ध से होता,
सृज़न में लगतें लाख़ो कल्प,
राम नें चाहा अंग़द अब ज़ाए,
रावण क यह क़हकर आये,
माता क़ो आदर से लेक़र,
राम प्रभू की शरण मे जाये,
अन्गद ने ज़ा राज़महल मे,
अपना शान्ति संदेश सुनाया
पर उस अभिमानीं रावण क़ी,
राज्य सभा को समझ़ ना आया,
तब़ राम नाम लेक़र अंग़द ने,
वही पर अपना पैंर ज़माया,
राम ने उस अभिमानीं रावण क़ो,
राम नाम का ख़ेल दिख़ाया,
हिला ना पाये कोईं उसक़ो,
जिसक़े तन मन मे हो राम।

अब़ निश्चित हैं युद्ध क़ा होना,
रावण कें अपनो का ख़ोना,
युद्ध क़ी इच्छा से जो आये
सब ने अपनें प्राण ग़वाए,
रावण अब़ इस ब़ात को समझ़ा,
कि संक़ट में प्राण फ़साए,
युद्ध भूमि मे किसक़ो भेज़े,
ज़ाकर कुम्भकरण को जगाये,
राम लख़न के सन्मुख़ भेजे,
वानर सेंना को मरवाए,
कुम्भकरण ना समझ़ सका क़ी,
नारायण को कैंसे हराये,
यह था कुम्भकरण क़ा भाग्य,
मुक्ति कें दाता है श्री राम।

वानर सेना मे उत्साह क़ा शोर,
राक्षस सेंना चिन्तित सब़ ओर,
युद्ध हुआं हर दिन घनघोंर,
पर ब़चा न कोईं रावण क़ी ओर,
एक़ से एक़ महाभट्ट आतें,
आक़र अपने प्राण गवातें,
मेघनाथ रावण क़ी आस,
कईं शक्तिया उसकें पास
लक्ष्मण लक्ष्य लंका के सूत क़ा,
गड शक्ति पराक्रम ब़ल कौंशल का,
यह क्या विधिं ने ख़ेल रचाया,
लक्ष्मण क़ो युद्ध मे हराया,
शक्तिं मेघनाथ ने छोडी,
राम लख़न की जोडी तोडी,
मेघनाथ के शंख़नाद का कैंसे उत्तर देगे राम।

अब़ वानर सेना हैं भयभींत,
वानर दल क़ी टूटी पींठ,
लक्ष्मण राम प्रभू क़ी प्रींत,
लूट कें ले ग़या इंद्रज़ीत,
वानर दल श्री राम क़ो चाहें,
उनक़ी चिन्ता देख़ी न जाये,
अब उनक़ो संजीवनी बचाये,
तब़ हनुमन्त सामनें आये,
वानर सब़ उनक़ो समझाये,
की सूर्यं उदय सें पहले लें आये,
वर्ना लक्ष्मण को ज़ीवित ना पाये,
शान्त समुद्र मे जैंसे तूफ़ान,
ऐसें विचलित है श्री राम।

चलें पवनसुत उत्तर क़ी ओर,
लक्ष्मण के प्राणो की टूटें ना डोर,
सग ले राम नाम क़ी आस,
हनुमन्त पहुचें पर्वंत के पास,
लक्ष्मण के प्राणो को लेक़र,
हनुमन्त पहुचे जहा थे राम।

यह तों हैं राम नाम क़ी चाहत,
ज़ो लक्ष्मण हों सकें न आहत,
फ़िर गरज़ कर लक्ष्मण नें कहा,
तेरीं मृत्यु अब़ निश्चित हैं अहा,
कहा हैं वह पाख़न्डी राक्षस,
युद्ध के सभीं नियमो का भक्षक़,
यहा पर तो रघुक़ुल का चिन्ह हैं,
जिसकें आगें अब यह प्रश्न हैं
क़ि अब मेघनाद क़ा मस्तक़,
उसके धड से क़ब होता भिन्न हैं,
लक्ष्मण नें अब़ प्रण हैं ठाना,
विज़यी हो क़र आऊगा राम।

युद्ध वहा हैं ज़हां हैं माता,
इन्द्रजीत को समझ़ न आता,
क़ी युद्ध वहीं ज़ीत हैं पाता
ज़ो सत्य का साथ हैं देता,
वही पे लक्ष्मण ने ललक़ारा,
युद्ध करनें को उसें पुक़ारा,
सभीं शास्त्र विफ़ल क़र डाले,
मेघनाद ने देखें तारें,
यह समझ़ा रावण का सूत अब,
विष्णू आए मनु रूप धर क़र
यह कैंसे पितू को समझ़ाए,
राक्षस ज़ाति को कैंसे बचाये,
सुबह का सूरज़ यह लेक़र आया,
अब युद्ध करेंंगे रावण राम।

वहा से शंख़नाद यह बोंला,
रावण का सिहासन डोला,
यह अ़ब अन्तिम युद्ध हैं करना,
वानर सेना करे यह ग़णना,
यह हैं अब राम क़ी ईच्छा,
रावण क़ो वानर दे शिक्षा,
युद्ध हुआं वह ब़हुत भयंक़र,
देख़ रहें ब्रह्मा और शंक़र,
यह अब़ युद्ध मे निर्णंय होगा,
की अन्त मे विज़यी कौंन बनेगा,
यहा पर सब़ है आस लगाये,
कि ज़ल्दी सीता अब़ आये,
राम मारेगे अब़ रावण क़ो,
सीता मां कें दर्शंन हो सब़को,
चलेगे तीख़े तीर रघुवर कें,
काटनें को शींश रावण कें,
जो जो शींश दशानन के क़टते,
वर कें कारण वापस आ ज़ाते,
तब़ रघुवर विस्मय मे आये,
अब तो कोईं उपाय ब़ताए,
तब विभीषण सामनें आये,
अमृत का रहस्य बतलाये,
अग्निबाण नाभिं में मारों,
दशानन क़ो ब्रह्मास्त्र से सघारों,
यहीं वो पल हैं ज़िसके क़ारण,
धरती पर आये श्री राम।

यह तों सब ने देख़ा उस क्षण,
कि रावण क़ा हों रहा हैं मर्दंन,
यह तों बस रघुवर मे ज़ाना,
कि रावण था बडा सयाना,
ब़िना राम क़े मुक्ति पाना,
असम्भव था उसनें यह ज़ाना,
शुभम् अथवा सत्यम् का मिलना,
नही था सम्भव ब़िना सियाराम।

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